Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन नीतिदर्शन को सामाजिक सार्थकता
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का विकास लोकजीवन या सामुदायिक जीवन की प्राथमिकता है। महावीर सामाजिक सुधार और सामाजिक सेवा की आवश्यकता तो मानते थे, किन्तु वे व्यक्ति-सुधार से समाज-सुधार की दिशा में बढ़ना चाहते थे। व्यक्ति समाज की प्रथम इकाई है, वह जब सुधरेगा तभी समाज सुधरेगा । व्यक्ति के नैतिक विकास के परिणामस्वरूप जो सामाजिक जीवन फलित होगा, वह सुव्यवस्था और शान्ति से युक्त होगा, उसमें संघर्ष और तनाव का अभाव होगा। जब तक व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति नहीं आती, तब तक सामाजिक जीवन की प्रवृत्ति विशुद्ध नहीं हो सकती । अपने व्यक्तिगत जीवन का शोधन करने के लिए राग-द्वेष के मनोविकारों और असत्यकर्मों से निवृत्ति आवश्यक है । जब व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति आयेगी, तो जीवन पवित्र और निर्मल होगा, अन्तःकरण विशुद्ध होगा और तब जो भी सामाजिक प्रवृत्ति फलित होगी, वह लोक-हितार्थ और लोक-मंगल के लिए होगी । जब तक व्यक्तिगत जीवन में संयम और निवृत्ति के तत्त्व न होंगे, तब तक सच्चा सामाजिक जीवन फलित ही नहीं होगा। जो व्यक्ति अपने स्वार्थों और अपनी वासनाओं का नियन्त्रण नहीं कर सकता, वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता । उपाध्याय अमर मुनि के शब्दों में जैनदर्शन की निवृत्ति का हार्द यही है कि व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति और सामाजिक जीवन में प्रवृत्ति । लोकसेवक या जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थों एवं द्वन्द्वों से दूर रहे, यह जैन दर्शन की आचार-संहिता का पहिला पाठ है-अपने ध्यक्तिगत जीवन में मर्यादाहीन भोग और आकांक्षाओं से निवृत्ति लेकर ही समाज-कल्याण के लिए प्रवृत्त होना जैन दर्शन का पहला नीति-धर्म है। सामाजिक नैतिकता और व्यक्तिगत नैतिकता परस्पर विरोधी नहीं है, बिना व्यक्तिगत नैतिकता को उपलब्ध किये सामाजिक नैतिकता की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही होगा । अतः हम कह सकते हैं कि जैन दर्शन में निवृत्ति का जो स्वर मुखर हुआ है, वह समाजविरोधी नहीं है, वह सच्चे अर्थों में सामाजिक जीवन का साधक है । चरित्रवान व्यक्ति और व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठे हुए व्यक्ति ही किसी आदर्श समाज का निर्माण कर सकते हैं। वैयक्तिक स्वार्थों की पति के निमित्त जो संगठन या समूदाय बनते हैं. वे सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं, क्या चोर, डाकू और शोषकों का समाज, समाज कहलाने का अधिकारी है ? समाज जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है व्यक्ति अपने और पराये के भाव से तथा अपने व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठे, चूंकि जैन नीति-दर्शन हमें इन्हीं तत्वों की शिक्षा देता है, अतः वह सच्चे अर्थों में सामाजिक है, असामाजिक नहीं है । जैन दर्शन का निवृत्तिपरक होना सामाजिक विमुखता का सूचक नहीं है। अशुभ से निवृत्ति ही शुभ में प्रवृत्ति का साधक बन सकती है। महावीर की नैतिक शिक्षा का सार यही है । ये 'उत्तराध्ययन' सूत्र में कहते हैं-"एक ओर से निवृत्त होओ और एक ओर प्रवृत्त होओ। असंयम से निवृत्त होओ, संयम में प्रवृत्त होओ।" वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति ही सामाजिक प्रवृत्ति का आधार है । संयम ही सामाजिक जीवन का आधार है।
१. अमर भारती, अप्रैल १९६६, पृ० २१ । २. उत्तराध्ययन, ३१।२।
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