Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैन नीतिदर्शन की सामाजिक सार्थकता'
डॉ० सागरमल जैन जैन धर्म को जिन आधारों पर सामाजिक जीवन से कटा हुआ माना जाता है, वे दो हैं—एक वैयक्तिक मुक्ति को प्रमुखता और दूसरा निवृत्तिप्रधान आचारमार्ग का प्रस्तुतीकरण। यह सत्य है कि जैन धर्म निवृत्तिपरक है और वैयक्तिक मोक्ष को जीवन का परम साध्य स्वीकार करता है, किन्तु इस आधार पर यह जान लेना कि उसके नीतिदर्शन की कोई सामाजिक सार्थकता नहीं है, क्या एक भ्रांति नहीं होगी ? यद्यपि यह सही है कि वह वैयक्तिक चरित्र के निर्माण पर बल देता है, किन्तु वैयक्तिक चरित्र के निर्माण हेतु उसने जिस आचार मार्ग का प्रस्तुतीकरण किया है, वह सामाजिक मूल्यों से विहीन नहीं है। प्रस्तुत निबन्ध में हम इन्हीं मूल प्रश्नों के सन्दर्भ में यह देखने का प्रयास करेंगे कि जैन नीति-दर्शन की सामाजिक उपादेयता क्या है ? क्या निवृत्ति सामाजिक विमुखता की सूचक है ?
सर्वप्रथम यह माना जाता है कि जो आचार-दर्शन निवृत्तिपरक है, वे व्यक्तिपरक हैं और जो आचार-दर्शन प्रवृत्तिपरक हैं, वे समाजपरक हैं। पं० सुखलालजी भी लिखते हैं कि प्रवत्तंक धर्म का संक्षेप सार यह है कि जो और जैसी समाज-व्यवस्था हो, उसे इस तरह नियम और कर्तव्यबद्ध करना कि जिससे समाज का प्रत्येक सभ्य अपनी-अपनी स्थिति और कक्षा के अनुरूप सुख लाभ करे। प्रवर्तक धर्म समाजगामी था, इसका मतलब यह था कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर सामाजिक कर्तव्यों का, जो ऐहिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं, पालन करे। निवर्तक धर्म व्यक्तिगामी है-निवर्तक धर्म समस्त सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों से बद्ध होने की बात नहीं मानता। उसके अनुसार व्यक्ति के लिए मुख्य कर्तव्य एक ही है और वह यह कि जिस तरह भी हो आत्मसाक्षात्कार का और उसमें रुकावट डालने वाली इच्छा के नाश का, प्रयत्न करे । यद्यपि जैन धर्म निवर्तक परम्परा का हामी है, तथापि उसमें सामाजिक भावना से पराङमखता नहीं दिखाई देती है। वह यह तो अवश्य मानता है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन लाभप्रद हो सकता है, किन्तु साथ ही वह यह भी मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में भी होना चाहिये । महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी है। बारह वर्षों तक एकाकी साधना करने के पश्चात् वे पुनः सामाजिक जीवन में लौट आये और चतुर्विध संघ की स्थापना एवं उसको जीवन भर मार्ग-दर्शन देते रहे। वस्तुतः उनकी निवृत्ति उनके द्वारा किये जाने वाले सामाजिक कल्याण में साधक ही बनी है, बाधक नहीं। वैयक्तिक जीवन में नैतिक स्तर
१. उदयपुर विश्वविद्यालय की संगोष्ठी में पठित निबन्ध । २. जैन धर्म का प्रा०, पृ० ५६-५९ ।
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