Book Title: Uttaradhyayanam Sutram Part 02
Author(s): Chandraguptasuri
Publisher: Anekant Prakashan Jain Religious Trust

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Page 303
________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥३०॥ अष्टादशम ध्ययनम् (१८) शान्तिनाथचरित्रम् ३९४-४०७ अथेति पृष्टस्तै पो-ऽवधिज्ञानी जगाविदम् ॥३९४॥ रामोऽपराजिताह्वोऽहं, प्राग्भवे पञ्चमेऽभवम् ॥ असौ दृढरथोऽनन्त-वीर्याख्योऽभूत्तदा हरिः ॥३९५॥ प्रतिविष्णुर्दमितारि-स्तदाऽऽवाभ्यां हतोऽभवत् ॥ भवे भ्रान्त्वा स | देवोऽसौ, बभूवाज्ञानकष्टतः ॥३९६॥ [अन्यच्च ] जम्बूद्वीपस्यैरवते, पद्मिनीषण्डपत्तने ॥ सागरदत्तेभ्यसुता-व भूतां धननन्दनौ ॥३९७॥ वाणिज्याय गतौ तौ च, पुरे नागपुरेऽन्यदा ॥ गृध्राविव क्रव्यपिण्डं रत्नमेकमपश्यताम् ॥३९८॥ सोदरावप्ययुध्येतां, तस्य रत्नस्य लिप्सया ॥ एकद्रव्याभिलाषो हि, परमं वैरकारणम् ॥३९९॥ नदीतीरे युध्यमानौ, तन्नदे पतितौ च तौ ॥ मृत्वाऽभूतां महाटव्यां, श्येनपारापताविमौ ॥४००॥ तेन प्राग्भववैरेण युध्यमानाविहाप्यम् ॥ अधिष्ठाय स गीर्वाण-श्चक्रेऽस्माकं परीक्षणम् ॥४०१॥ तत्क्षोणीशवचः श्रुत्वा, पक्षिणावपि तौ क्षणात् ॥ जातिस्मरणमासाद्य, स्ववाचेत्यूचतुर्नुपम् ॥४०२॥ रत्नवन्नृत्वमप्यावां, तदा लोभेन हारितौ ॥ यथार्ह धर्ममादिश्या-ऽनुगृह्णात्वधुना भवान् ! ॥४०३॥ तद्विज्ञायावधिज्ञाना-द्राज्ञानशनमीरितम् ॥ प्रपद्य तौ विपद्याशु, जाती भवनपौ सुरौ ॥४०४॥ कृताष्टमं मेघरथं, प्रतिमास्थितमन्यदा ॥ तुभ्यं नमोऽस्त्विति वद-त्रीशानेन्द्रोऽनमन्मुदा ॥४०५॥ त्वयाऽपि विश्ववन्येन, कोऽसौ स्वामिन्नमस्कृतः ॥ महिषीभिस्तदा चैवं, पृष्टः स हरिरित्यवक् ॥४०६॥ नगर्यां पुण्डरीकिण्यां, श्रीमेघरथपार्थिवम् ॥ प्रतिमास्थं भाविजिनं, वीक्ष्य भक्त्याहमानमम् ॥४०७॥ ध्यानस्थितं UTR-2 ॥३०॥ १मांसपिण्डम् ।

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