Book Title: Uttaradhyayanam Sutram Part 02
Author(s): Chandraguptasuri
Publisher: Anekant Prakashan Jain Religious Trust

View full book text
Previous | Next

Page 335
________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥३३३॥ स्पतिः ॥ धन्यस्त्वं येन सपदि, संत्यक्ता सम्पदीदृशी ! ॥१०१॥ प्राज्यमुत्सृज्य साम्राज्य-मुररीकुर्वता व्रतम् ॥ सत्यसन्ध ! स्वसन्धाऽपि, नूनं सत्यापिता त्वया! ॥१०२॥ जिनार्चा हि द्रव्यपूजा, भावपूजा तु संयमः ॥ द्रव्यपूजाकृतो भाव-पूजाकृच्चाधिको मतः ॥१०३।। तत्त्वया जित एवाहं, भावस्तवविधायिना ॥ अन्या हि भूयसी शक्तिरस्ति मे न पुनव्रते ॥१०४॥ स्तुत्वेति तं राजमुनि बिडौजा, जिनं प्रणम्य त्रिदिवं जगाम । राजर्षिरप्युग्रतपा विधाय, कर्मक्षयं मुक्तिपुरीमियाय ॥१०५॥ इति श्रीदशार्णभद्रराजर्षिकथा ॥४४॥ मूलम्--नमी नमेहि अप्पाणं, सक्खं सक्केण चोइओ। चइऊण गेहं वइदेही, सामण्णे पज्जुवट्ठिओ ४५ व्याख्या--प्राग्वत् ॥५॥ मूलम्--करकंडु कलिंगेसु, पंचालेसु अ दुम्मुहो । नमिराया विदेहेसु, गंधारेसु अ नग्गई ॥४६॥ व्याख्या--स्पष्टम् ॥४६॥ मूलम्--एए नरिंदवसहा, निक्खंता जिणसासणे । पुत्ते रज्जे ठवेऊणं, सामण्णे पज्जवद्विया ॥४७॥ व्याख्या--एते नरेन्द्रवृषभा निष्क्रान्ताः प्रव्रजिता जिनशासने न त्वन्यत्र, निष्क्रम्य च श्रामण्ये पर्युपस्थिताः प्रोद्यता अभूवन्निति शेषः, एतेषां कथास्तु प्रागुक्ता इति न पुनरिहोच्यन्ते ॥४७॥ अष्टादशमध्ययनम् (१८) दशार्णभद्र चरित्रम् १०१-१०५ गा ४५-४७ UTR-2 ॥३३३॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386