Book Title: Uttaradhyayanam Sutram Part 02
Author(s): Chandraguptasuri
Publisher: Anekant Prakashan Jain Religious Trust
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यनसूत्रम्
अष्टादशम
ध्ययनम् दशार्णभद्र
चरित्रम् ८८-१००
उत्तराध्य
मुह पणसय बास्तर [५१२] दन्ता चउरो सहस्स छण्णआ [ ४०१६] बत्तीस सहस सगसय अडसट्ठी [३२७६८ ]
होंति पुक्खरिणी ॥८॥ पउमा दुलक्ख बासट्ठि सहस चोआल सयमिआ [ २६२१४४] जाण ॥ पासा इंदा ॥३३२॥ II
तत्तल्ल अग्गमहिसी तयट्ठगुणा [२०९७१५२] ॥८९॥ दुसहस्स छसय इगवीस कोडि चउआल लक्ख कमलदला [ २६२१४४००००० ] नट्टा पुण दलतुल्ला एगेग गयस्स इइ संखा ॥१०॥ तैर्गजैश्छादयन् व्योम, शरदभैरिवामलैः ॥ आगात्पुरन्दरः क्षिप्र-मुपसार्वपुरन्दरम् ॥९१॥ जिनं प्रदक्षिणीचक्रे, हस्तिमल्लस्थितो हरिः ॥ ववन्दे च स्वकीयाङ्ग-रुचिन्यञ्चितभास्करः ॥१२॥ क्षोणीक्षिद्वीक्ष्य तल्लक्ष्मी, दक्षधीरित्यचिन्तयत् ॥ मया तुच्छतयाऽकारि, सम्पद्दो मुधैव हि ! ॥१३॥ इयं का नाम मे सम्प-दस्याऽऽसां सम्पदां पुरः ॥ खद्योतपोतोद्योतो हि, कियान् प्रद्योतनद्युताम् ? ॥१४॥ तन्नूनं तुच्छयाऽपि स्या-नीचानां सम्पदा मदः ॥ प्राप्य पङ्किलमप्यम्भो, भृशं नईन्ति दर्दुराः ! ॥१५॥ इयं च श्रीरनेनापि, लेभे धर्मप्रभावतः ॥ विना धर्म हि सा चेत्स्या-त्सर्वेषां स्यात्तदा न किम् ? ॥९६॥ हित्वा विषादं तद्धर्म, श्रयेऽहमपि निर्मलम् ॥ इत्थं कृते हि मानोऽपि, कृतार्थो मे भविष्यति ! ॥१७॥ ध्यात्वेति प्राञ्जलिर्भूमी-जानिर्जिनमदोऽवदत् ॥ भवोद्विग्नं विभो! दीक्षा-दानेनानुगृहाण माम् ॥९८॥ इत्युक्त्वा कृतलोचं तं, पृथ्वीनाथं व्रतार्थिनम् ॥ स्वयं प्रावाजयद्वीर-विभुर्विश्वैकवत्सलः ॥१९॥ तमनु प्राव्रजत्सद्यो, महत्तरसुतोऽपि सः ॥ सङ्गः सत्पुरुषाणां हि, सर्वकल्याणकामधुक् ! ॥१००॥ ततः प्रणम्य राजर्षि-मित्युवाच दिव
UTR-2
॥३३२॥

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