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३३ होते हैं। विचार करना चाहिए कि इस समय ११ अंग - शास्त्र विद्यमान हैं, १२वां दृष्टिवादाङ्ग शास्त्र व्यवच्छेद हुआ माना जाता है । अंगशास्त्रों के नाम निम्नलिखित हैं—
१. आचारांग-शास्त्र, २. सूयगडांग - शास्त्र, ३. स्थानांग - शास्त्र, ४. समवायांग - शास्त्र, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती-शास्त्र), ६. ज्ञाताधर्मकथांग - शास्त्र, ७. उपासकदशांग - शास्त्र, ८. अंतकृद्दशांग - शास्त्र, ६. अनुत्तरौपपातिक-शास्त्र, १०. प्रश्नव्याकरण-शास्त्र, ११. विपाक-शास्त्र, १२. दृष्टिवादांग-शास्त्र (जो व्यवच्छेद हो गया है)।
उपांगशास्त्रों के नाम ये हैं - १. औपपातिक-शास्त्र, २. राजप्रश्नीय-शास्त्र, ३. जीवाभिगम-शास्त्र, ४. प्रज्ञापना-शास्त्र, ५. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति - शास्त्र, ६. सूर्यप्रज्ञप्ति - शास्त्र, ७. चन्द्रप्रज्ञप्ति - शास्त्र, ८. निरयावलिकाओ, ६. कप्पवडिंसियाओं, १०. पुप्फियाओ, ११. पुप्फचूलियाओ, १२. वहिदसाओ। चार मूल शास्त्र ये हैं—१. दशवैकालिक शास्त्र, २. उत्तराध्ययन- शास्त्र, ३. नन्दी - शास्त्र और ४. अनुयोगद्वार - शास्त्र । चार छेद-शास्त्र - १. व्यवहार - शास्त्र, २. बृहत्कल्प - शास्त्र, ३. दशाश्रुतस्कन्ध-शास्त्र, ४. निशीथ-शास्त्र (ये ३१ हुए) और ३२वां आवश्यक शास्त्र । इस प्रकार ३२ आगमों की संज्ञा वर्तमान काल में मानी जाती है, किन्तु यह संज्ञा अर्वाचीन प्रतीत होती है। कारण यह है कि नन्दी - सिद्धान्त में सब सिद्धान्तों की चार प्रकार से निम्नलिखित संज्ञाएं वर्णन की गई हैं— जैसे – अंग-शास्त्र, उत्कालिक-शास्त्र, कालिक-शास्त्र और आवश्यक शास्त्र । जो उपांग शास्त्र और चार मूलशास्त्र, चार छेदशास्त्र हैं, ये कालिक और उत्कालिक शास्त्रों के ही अन्तर्गत लिए गए हैं। (देखो नंदी - सिद्धान्त - श्रुतज्ञानविषय | )
तथा औपपातिक आदि शास्त्रों में कहीं पर भी यह पाठ नहीं है कि ये उपांगशास्त्र हैं । जैसे पांचवें अंग के आगे के अंग शास्त्रों के आदि में यह पाठ आता है कि, भगवान् जम्बूस्वामी जी कहते हैं- "हे भगवन् ! मैंने छठे अंगशास्त्र के अर्थ को तो सुन लिया है, किन्तु सातवें अंगशास्त्र का श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ वर्णन किया है ?" इत्यादि । किन्तु उपांगशास्त्रों में यह शैली नहीं देखी जाती और न शास्त्रकर्ता ने उनकी उपांग संज्ञा कही है। किन्तु केवल निरयावलिका-सूत्र के आदि में 'उपांग' यह शब्द अवश्य विद्यमान है। तथा च पाठ
"तएण से भगवं जंबू जातसड्ढे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी – उवंगाणं भंते ! समणेणं जाव संपत्ते के अट्ठे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं एवं उवंगाणं पंचवग्गा पण्णत्ता तं जहा—१. निरयावलियाओ, २. कप्पवडिंसियाओ, ३. पुष्फियाओ, ४. पुप्फचूलियाओ ५. बहिदसाओ" इत्यादि ।
इस पाठ के आगे वर्गों के कतिपय अध्ययनों का वर्णन किया गया है। इस पाठ से यह स्पष्ट नहीं हो सकता कि ये उपांगों के पांच वर्ग कौन-कौन से अंगशास्त्र के उपांग हैं । यद्यपि पूर्वाचार्यों ने अंग और उपांगों की कल्पना करके अंगों के साथ उपांग जोड़ दिए हैं, किन्तु यह विषय विचारणीय है। कालिक और उत्कालिक संज्ञा स्थानांगादि शास्त्रों में होने से बहुत प्राचीन प्रतीत होती है, किन्तु
श्री उत्तराध्ययन सूत्रम् / 42 / स्वाध्याय