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समस्त विषयों का "वायु" में लय हो जाता है।" रक्व के इन विचारों से यह फलित होता है कि "वायु" जगत् का मूल कारण है, क्योंकि जगत् का लय उसी में है और लय उसी में होता है जो उसका आदि कारण हो ।
प्रश्न उपनिषद् और तैत्तिरीय उपनिषद् के कुछ ऐसे अवतरण है जिनमें स्पष्ट रूप से वायु की उत्पत्ति "आकाश' से मानी गई है। अब, यदि आकाश से उत्पन्न है तब प्रश्न उठता है कि वायु जगत् का कारण कैसे हो सकती है ? इस संदर्भ में प्रवाहण जैवालि ने वायु को जगत् का मूल कारण नहीं, अपितु "आकाश" को मूल कारण माना है। उनके अनुसार समस्त विषयों की उत्पत्ति "आकाश" से होती है और अंत में आकाश में ही उनका निलय हो जाता है। आकाश चरम-गति है तथा अन्य विषयों से महान् है। इसके समर्थन में छांदोग्य उपनिषद् में एक अन्य अवतरण है जिसमें कहा गया है कि आकाश निस्सन्देह अग्नि से महान है। सूर्य और चंद्र, विद्युत और नक्षत्र आकाश के अन्तर्गत है और आकाश से समस्त विषयों का विधान है। आकाश को चरम-सत्य मानकर, उसी का चिंतन करना चाहिये।"
तत्त्व सम्बन्धी उपर्युक्त मतों के समर्थकों ने जल, अग्नि, वायु और आकाश में से किसी एक को तत्त्व या जगत् का मूल कारण माना है, एक से अधिक को नहीं माना और और न ही किसी ने "पृथ्वी" को जगत् का कारण या तत्त्व माना । किन्तु कुछ प्रत्यक्षवादी दार्शनिकों ने तत्त्व एक नहीं एक से अधिक माने । उन दार्शनिकों में से कुछ दार्शनिकों ने पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चारों को तत्त्व माना, किन्तु आकाश को नहीं माना। इनके विपरित कुछ अन्य दार्शनिकों ने चार तत्त्वों के साथ "आकाश" को भी तत्त्व माना तथा उनस जगत् के शेष विषयों की उत्पत्ति मानी ।५ उन दार्शनिकों का मत है, ये तत्त्व अर्थात् महाभूत किसी कर्ता द्वारा निर्मित नहीं हैं और न ही ये अपनी सत्ता के लिए किसी अन्य तत्त्व पर अपेक्षित हैं। ये स्वतंत्र एवं शाश्वत हैं। आदि और अन्त रहित हैं । जगत् के समस्त विषय उन्हीं से निर्मित हैं तथा वे ही समस्त क्रियाओं के आधार हैं।
किन्तु तत्त्व सम्बन्धी महाभूतों की कल्पना द्वारा प्राणी जगत् की सुसंगत व्याख्या नहीं हो सकती, क्योंकि प्राणियों के शरीर में कोई ऐसा तत्त्व है, जिसके रहने पर शरीर सक्रिय रहता है और उसके अभाव में. पांच महाभूतों के रहते हुए भी शरीर निष्क्रिय हो जाता है। अत: कोई तत्त्व-विशेष होना चाहिए, जो शरीर का धारक हो प्रश्न है कि वह तत्त्व विशेष क्या है जो शरीर का धारक है ? इस समस्या के समाधान में पिप्लाद "प्राण" की कल्पना पर पहुंचे तथा "प्राण' को शरीर का धारक ही नहीं जगत् का परम तत्त्व भी माना। पिप्लाद के अनुसार प्राणियों के शरीर को आश्रय देकर धारण करने वाल तत्त्व "प्राण'' है, क्योंकि जब शरीर से प्राण बाहर निकलता है तब अन्य सब भी शरीर से बाहर निकल जाते हैं तथा उसके ठहर जाने पर अन्य भी ठहर जाते हैं ।" सब कुछ प्राण के आश्रित है । जिस प्रकार रथ के पहिये की नाभि में लगे हुए आरे, नाभि के आश्रित रहते हैं। उसी प्रकार समस्त विषय प्राण के आश्रित हैं । जगत् में जो कुछ है --पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सूर्य, सत्, असत् तथा अमृत, वह १०४
तुलसी प्रज्ञा
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