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तुलसी प्रज्ञा (पूर्णांक-९७) पर प्राप्त हुईं
कतिपय प्रतिक्रियाएं
१. 'प्राकृत ज्ञान विद्या विकास फण्ड, अहमदाबाद' से डॉ० के० आर० चन्द्र लिखते हैं'शौरसेनी के बारे में जो गलतफहमी फैलाई जा रही है वह academic नहीं होते हुए मात्र सांप्रदायिक है। आपका इस विषय पर जो संपादकीय प्रकाशित हुआ है, वह प्रशंसनीय है। इस पर तो और भी काफी लिखा जा
सकता है।' २. ज्योति निकुंज, चारबाग, लखनऊ से डॉ० शशिकान्त लिखते हैं--- 'आपका सम्पादकीय-शौरसेनी कहने का आग्रह क्यों ?-अनुचित नहीं है । इस विषय पर शोधादर्श-२६ में 'भगवान् महावीर की प्राकृत' पर अपने विचार पहले ही दे चुके हैं।'
३. वल्लभ विद्यानगर (गुजरात) से अवकाशप्राप्त प्रोफेसर डॉ० भूपतिराम
साकरिया लिखते हैं'आपका संपादकीय 'शौरसेनी का आग्रह क्यों ?' मैं गम्भीरतापूर्वक पढ़ गया हूं। समझ में तो अधिक नहीं आया, परन्तु आपके संपादकीय ने मुझे उत्तेजित किया है। गत तीन वर्षों से मेरा सोच यह रहा है कि राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति किसी मारु अपभ्रंश से हुई है, अन्य किसी अपभ्रंश से नहीं। श्री सीताराम चतुर्वेदी ने केन्द्र की भाषा पत्रिका में छपे अपने एक लेख में अनेक संस्कृत ग्रन्थों के उदाहरण देकर यह प्रस्थापित किया है कि हिन्दी की उत्पत्ति किसी अपभ्रंश से न होकर सीधे संस्कृत से हुई है। आज राजस्थान के अनेक विश्वविद्यालयों में एम. ए. में राजस्थानी विषय पाठ्यक्रमों में है और सभी प्राध्यापक भाषा विज्ञान के अन्तर्गत हिन्दी का भाषा विज्ञान पढ़ाते हैं । आप जैसे सक्षम विद्वान् से राजस्थानी भाषा अपेक्षा रखती है कि आप एक भाषा विज्ञान का लघु ग्रंथ ही सही राजस्थानी पर अवश्य लिखें। यह एक 'माइल स्टोन' होगा। जहां मेरी सेवाओं की
आवश्यकता आपको लगे, मुझे अवश्य लिखें।' ४. अलखसागर, बीकानेर से डॉ. गिरिजाशंकर शर्मा लिखते हैं-- 'भारतीय विश्वविद्यालय स्तर पर जो शोध पत्रिकायें देखने में आ रही हैं, उनमें 'तुलसीप्रज्ञा' अपनी विशेष पहचान बनाए हुए है। गुणदृष्टि से सभी
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