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१७. कयमित्थपसंगेणं, ठाणाइ सु जत्तसगयाणं तु ।
हियमेयं विन्नेयं, सदणुट्ठाणत्तणेण तहा ||
अधिक विस्तार से क्या ? जो स्थान आदि योगों में प्रयत्नशील हैं उनके लिए ये अनुष्ठान हितकर हैं-मोक्ष के साधक हैं तथा ये सद् अनुष्ठान होने के कारण स्वतंत्र रूप से भी मोक्ष प्रदायक हैं ।
१८. एयं च पीयभत्तागमाणुगं, तह असंगया जुत्तं । नेयं चव्विहं खलु, एसो चरमो हवइ जोगो ||
यह सद् अनुष्ठान चार प्रकार का है--प्रीति अनुष्ठान, भक्ति अनुष्ठान, आगम अनुष्ठान ( वचन अनुष्ठान) और असंग अनुष्ठान । असंग अनुष्ठान ही चरम् योग है ।
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१. प्रीति अनुष्ठान - जिस अनुष्ठान में प्रयत्न की विशेषता होती है, जिसमें परम प्रीति का उदय होता है उसे प्रीति अनुष्ठान कहा जाता है । २. भक्ति अनुष्ठान- आलबन की तुल्यता होने पर भी पूज्यत्व को विशेष बुद्धि से जो विशुद्ध प्रवृत्ति की जाती है, उसे जाता है ।
भक्ति अनुष्ठान कहा
पत्नी अत्यन्त वल्लभ होती है और जननी अत्यन्त हितकर । इन दोनों का कृत्य (भोजन परोसना या शय्या बिछाना ) समान महत्त्व के होने पर भी पत्नी के प्रति प्रीति और जननी के प्रति भक्ति होती है । यही प्रीति और भक्ति में अन्तर है ।
अनुष्ठान - चारित्रवान् व्यक्ति की उचित
३. आगम अनुष्ठान या वचन वचनात्मक प्रवृत्ति |
४. असंग अनुष्ठान - बार-बार के अभ्यास से जो क्रिया आत्मसात् हो जाती है, पश्चात् तज्जनित संस्कार से वह वचन निरपेक्ष होकर चलती है, उसे असंग अनुष्ठान कहा जाता है ।
१९. आलंबणं पि एयं, रूवमरूवी य इत्थ परमुत्ति ।
तग्गुणपरिणइ रूवो, सुहुमोऽणालंबणो नाम ॥
आलंबन दो प्रकार के होते हैं-रूपी - मूर्त्त द्रव्य का आलंबन और अरूपीअमूर्त द्रव्य का आलंबन । अरूप के आलंबन में तद्गुण परिणत रूप ( उस वस्तु में रहे रूपका आलंबन) का ही सूक्ष्म आलंबन रहता है । यही अनालंबन योग है । २०. एयम्मि मोहसागरतरणं सेढी य केवलं चेत्र ।
तत्तो अजोगजोगो, कमेण परमं च निव्वाणं ॥
इस निरालंबन ध्यान में मोह सागर को तेरा जाता है और फिर क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होकर योगी केवलज्ञान को पा लेता है । उसके बाद क्रमशः अयोग होकर वह परम निर्वाण को पा लेता है ।
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तुलसी प्रज्ञा
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