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स्थान आदि में युक्त होते हैं उन्हें केवल श्रेयस् की प्राप्ति होती है, निर्वाण प्राप्त नहीं होता।
१२. इहरा उ कायवासियपायं अहवा महामुसावाओ । ___ता अणुरूवाणं चिय, कायव्वो एय विन्नासो ।।
अन्यथा (भावक्रिया के बिना) वह अनुष्ठान केवल छाया की चेष्टा मात्र अथवा महामृषावाद के दोष से युक्त होता है। इसलिए इस विधि का अभ्यास उन व्यक्तियों को कराना चाहिए जो अध्यात्म में एक रस हों। १३. जे देसविरइजुत्ता, जम्हा इह वोसिरामि कायं ति ।
सुव्वइ विरईए इयं, ता सम्म चितियव्वमिणं ।। जो व्यक्ति देश विरति से युक्त हैं, वे ही योग के अभ्यास के लिए उपयुक्त होते हैं, क्योंकि वे कायोत्सर्ग का अभ्यास करते रहते हैं। कायोत्सर्ग का अभ्यास विरति से होता है, अतः इस तथ्य पर सम्यक् चिन्तन करना चाहिए। १४. तित्थस्सच्छेयाइवि, नालंबण जं ससमएमेव ।
सुत्तकिरियाइ नासो, एसो असमंजस विहाणा ।। 'तीर्थ का व्युच्छेद न हो, इसलिए अविधि-अनुष्ठान भी कर लेना चाहिए'-- ऐसा आलंबन न ले। क्योंकि अविधि-अनुष्ठान से अशुद्ध परम्परा की प्रवृत्ति होती है और उससे सूत्र और क्रिया का नाश होता है । यही वास्तव में तीर्थ का उच्छेद है।
१५. सो एस वकओ चिय, न य सयमयमारियाणमविसेसो। । एयं पि भावियव्वं, इह तित्थुच्छेयभीरूहिं ।।
अविधि से किया जाने वाला यौगिक अनुष्ठान कुफलदायी होता है। जो व्यक्ति परंपरा की व्युच्छित्ति के भय से अविधियों का आलंबन लेते हैं, उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि स्वाभाविक मृत्यु से मरने या हत्या द्वारा मारे जाने में कोई अन्तर नहीं है।
। [इसका प्रतिपाद्य यह है कि विधिपूर्वक अनुष्ठान न होने पर परंपरा का व्युच्छेद होता हो तो भले हो, किन्तु अविधि से उसकी सुरक्षा कभी भी वांछनीय नहीं है ।
१६. मुत्तूण लोगसन्न, उड्ढूण य साहु समय सब्भावं । __ सम्म पयट्ठियव्वं, बुहेण मइनिउणबुद्धीए ।
लोकसंज्ञा को छोड़कर, समीचीन सिद्धान्त के रहस्य को जानकर ज्ञानी व्यक्ति को अति निपुणबुद्धि से विधिपूर्वक वर्तन करना चाहिए। १. सिद्धान्त का रहस्य यह है१. लोकमालम्ब्य कर्तव्यं, कृतं बहुभिरेव चेत् ।
तदा मिथ्यादृशां धर्मो, न त्याज्यः स्यात् कदाचन ॥
तुलसी प्रज्ञा
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