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खोपहिं ऊपर अग्वअल कइस ।' रवि जणि राहू घेतल जइस ॥ दिठहुल फूल अम्हारे म्वाझथि ।
ते देखि तरूणे सावइ म्वझथि ।। २१. वृछे फूल तारे मण/हारे ।
रयणि मुंहा जणु गणिए तारे ।। रे रे बर्बर देखु रे (तूं चाहु)।' तारिनि लाड़ी सरिसी काहु ।। भउही तूर री देखु वर्वर कइसी । वाहि काम्व करी वणु अवणी जइसी ।।
अरे अरे वर्वर देखसि न टीका। २२. चांदहि ऊपर एह/भइ टीका ।।
वटुला टीका केहर भावइ । मुंह ससि उलगं हु चावइ । विण बनवारा अछणे ना वारसि ।' बुड्ढि रे वडिरी आपणी हारसि ॥ कानहु पहरिले ताडर पात ।
जणु सोहइ एवं सोहरे पात ॥ २३. गुआरांण दे/सण रे रात ।
आठकुडी पुत (ते अर) गात ।। कांठहि मांडणु प... लर तागु । सोलहि मयणहिं एवं भेअल लागु ।। मासे सोना जालउ की जइ ।
मोत्ता सर सोह ते न्नह सीजइ ।। २४. गंठिआ तागउ गलेहि सो भूस/णु ।
जो देखि वडिरो को न मुझइ जणु । गल करीअहु करउ सो हारू ।' (सो देखि) हारह्वभउ अब हारू ।।
१. अग्वअल-माथे पर की लटें जिन्हें आभूषण पहनने को छोटा कर दिया जाता है ।
जूडे की माला भी अग्वअल कही जाती है। २. बर्बर – यह कवि, डाहल कर्ण का दरबारी कवि माना जाता है जिसका शासन
सं० १०४०-८० है। इस प्रकार से यह रोडेराव का समकालिक
कवि है और संभवतः बालसखा भी है। ३. वनवारां=पान के आकार का ललाट पर पहना जाने वाला आभूषण । ४. गल करीअहु-संबंध की बात करेगा।
खण्ड २२, अंक २
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