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अणुकंपा निव्वेओ, संवेगो होइ तह य पसमुत्ति । एएसि अणुभावा, इच्छाईणं जहासंखं ॥
८.
इच्छा आदि योगों के यथाक्रम ये अनुभाव ( कार्य ) है -
• इच्छा -- अनुकपा ( करुणा- - दुःखी व्यक्तियों के दुःख-हरण का प्रयत्न ) । प्रवृत्ति निर्वेद ( भव- विरक्ति) ।
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• स्थिरत्व -- संवेग (मुक्त होने की अभिलाषा ) ।
• सिद्धि --- प्रशम ( तृष्णा का उपशमन ) ।
९. एवं ठिमि तत्ते, नाएण उ जोयणा इमा पयडा ।
चिइवंदणेण नेया, नवरं तत्तण्णुणा सम्मं ॥
योग तत्त्व की इस प्रकार की व्यवस्था होने पर तत्त्वज्ञ व्यक्ति की सम्यक प्रकार से चत्यवन्दन के दृष्टान्त से इसकी स्पष्ट योजना जाननी चाहिए । १०. अरिहंतचेइयाणं, करेमि उस्सग्ग एवमाइयं । सद्धाजुत्तस्स तहा, होइ जहत्थं पयनाणं || 'अरिहंत, चंत्य आदि का मैं कायोत्सर्ग करता हूं' वाले श्रद्धायुक्त व्यक्ति को पद का यथार्थ ज्ञान होता है । ११. एयं चत्थालंबणजोगवओ, पायमनिवरियं तु । इयरेसि ठाणाइस, जत्तपराणं परं सेयं ॥
- इस प्रकार उच्चारण करने
पद - परिज्ञान के अर्थ के आलंबन में युक्त व्यक्ति को प्रायः वह (पद - परिज्ञानं ) परम फल की प्राप्ति का हेतु होता है । यह भावक्रिया है । जो अर्थ का आलंबन लेकर १. मूल बात यह है कि जो व्यक्ति योग का अभ्यास करना चाहता है उसका पहला सोपान है कि उसमें योगशास्त्र, योग की विधि और योगियों पर अटूट श्रद्धा और बहुमान हो तथा उसका दृष्टिकोण सम्यक् हो । जब उसमें ये बातें आती हैं, तब उसे इच्छायोग में प्रवृत्त माना जाता है । इच्छायोग की घनीभूत अवस्था से साधक में अनुकंपाभाव का विकास होता है । इच्छा कारण है और अनुकंपा कार्य । दूसरा सोपान है - प्रवृत्ति । इसके अभ्यास से व्यक्ति में भव-भ्रमण के प्रति विरक्ति होती है और वह सतत वृद्धिगत होती जाती है। तीसरा सोपान है— स्थिरत्व | जब उसमें स्थिरता आती है तब वह सभी बाधक चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है । इसका प्रतिफलन उसकी मुमुक्षुभाव की वृद्धि में होता है । जब वह अन्तिम सोपान पर * पैर रखता है तब उसकी सारी तृष्णाएं नष्ट हो जाती हैं। सिद्धि का प्रतिफलन है। इसका फलितार्थ है, जो व्यक्ति योग में प्रवृत्त होगा उसमें
तृष्णा का अभाव योग
ये चार फलित होंगे
१. करुणा का विकास ।
२. भवविरक्ति की भावना का विकास |
३. स्वतन्त्र होने की भावना का विकास ।
४. वितृष्णा अवस्था का विकास ।
खंड २२, अंक २
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