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यह पांचों प्रकार का योग निश्चित रूप से देशतः या सर्वतः संयमी व्यक्ति के ही होता है। कुछ आचार्य मानते हैं कि देश या सर्व चारित्र के बिना दूसरों में यह योग बीज मात्र होता है।'
४. इक्किक्को उ चउद्धा, इत्थं पुण तत्तओ मुणयव्वो।
इच्छा पवित्ति-थिर-सिद्धिमेवाओ समयनीईए ।
तत्त्वतः और योग परिपाटी के अनुसार स्थान आदि योग चार-चार प्रकार का होता है । वे चार प्रकार हैं - - इच्छा, प्रवृत्ति, स्थिरत्व और सिद्धि ।
५. तज्जुत्तकहापीईइ, संगया विपरिणामिणी इच्छा।
सव्वत्थुवसमसारं, तप्पालणओ पवत्ती उ॥ १. इस श्लोक का प्रतिपाद्य यह है कि योग का प्रारम्भ चारित्र से होता है। जिस साधक में चारित्र की जितनी विशुद्धि होगी वह उतनी ही मात्रा में योगाभ्यास में आगे बढ़ता जाएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो यम, नियम या व्रतों के बिना योग का अभ्यास अभ्यास-मात्र रह जाता है, सिद्ध नहीं होता। चारित्र के पांच प्रकार हैं(१) अध्यात्म-उचित प्रवृत्ति वाले व्रती-व्यक्तियों का शास्त्रानुसार जीव आदि
तत्त्वों का चिन्तन, जो मैत्री आदि भावनाओं से गभित हो, उसे अध्यात्म
कहते हैं। (२) भावना-- अध्यात्म का ही प्रतिदिन प्रवर्धमान और चित्तवृत्ति को उसमें ही
रखने वाला अभ्यास । (३) अध्यान-प्रशस्त आलंबन वाला, स्थिर दीपकलिका की भांति स्थिर तथा
उत्पाद आदि सूक्ष्म पर्यायों के चिन्तन से युक्त चित्त । (४) समता--शुभ तथा अशुभ विषयों में समानता का अभ्यास करना। (५) वृत्तिसंक्षेप- मन, शरीर और अन्य संयोगात्मक वृत्तियों का सम्पूर्ण
निरोध । इन पांचों का पूर्व बतलाए गए पांचों प्रकार के योगों में समावेश हो जाता है।
इस श्लोक में देश चारित्री से अणुव्रती और सर्वचारित्री से महाव्रती का ग्रहण किया है। जो व्यक्ति चतुर्थ गुणस्थान या उनके नीचे के गुणस्थानों वाले होते हैं इनमें ये योग बीज रूप में रहते हैं, व्यक्त नहीं होते। दूसरे शब्दों में उनके योग अभ्यास दशा में ही रहते हैं, सिद्ध नहीं होते। इसका तात्पर्य यह हुआ कि साधक को सर्वप्रथम सम्यग् दृष्टि वाला होना चाहिए। जब उसकी दृष्टि सही होती है, तब वह अपनी साधना का लक्ष्य और उसकी प्राप्ति के साधनों का भी सही-सही चयन कर लेता है, अन्यथा भटक जाता है। सम्यक् दृष्टि वाले व्यक्ति का कार्य इतना भ-काने वाला नहीं होता, जितना मिथ्यादृष्टि वाले व्यक्ति का कार्य होता है। अतः योग की सिद्धि उसी को प्राप्त होती है जिसका दृष्टिकोण समीचीन होता है।
खड २२, बंक २
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