________________
में भी अन्तर है । सरदार की प्रति का सं० २० वाला पद 'राधे ! तँ कत मान कियो री' भारतेन्दुजी की प्रति में नहीं है, तथा भारतेन्दुजी की प्रति के सं० ३० और ३३ वाले पद 'ब्रज में आजु एक कुमार' और पिय बिनु बहत बैरिन वाइ' सरदार की प्रति में नहीं हैं । १४ इससे स्पष्ट है कि भारतेन्दु ने किसी समकालीन व्यक्ति या सरदार कवि के प्रभाव से नहीं, दोनों पदों समेत 'साहित्यलहरी' को प्रामाणिक माना था प्राचीनतर सामग्री को देखकर ।
__ भारतेन्दु ने एक हस्तलेख की टीका को सूर कृत मान लिया यह उनकी भ्रांति थी। इस भ्रांति का कारण पद-संख्या ९० की टीका में 'सूर' छाप का मिलना था। मीतल जी कहते हैं-'सूर के नाम का उल्लेख केवल एक पद की टीका के साथ मिलता है, अन्य पदों की टीका के साथ नहीं। इसे भी कवि-छाप न समझकर टीकाकार द्वारा 'सूर' के नाम का उल्लेख मात्र कहा जा सकता है । ....... फिर भी यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि सरदार कवि के पहले किसी ने साहित्यलहरी की टीका अवश्य की थी।"१५ वा० रामदीन सिंह भी टीका को सूर कृत नहीं मानते थे। उनका कहना था कि टीका भारतेन्दु को "विशेष अनुसंधान" से मिली थी और "सरदार कवि ने उसी को कुछ घटा बढ़ाकर अपने नाम से प्रकाशित किया है।'' मूल क्या, टीका के बारे में भी वा० रामदीन सिंह सरदार कवि को श्रेय नहीं देते। मीतलजी का मत भी वैसा ही है :---
"....." सरदार कवि इसका टीकाकर माना जाता है फिर भी यह निश्चित है कि उसने न तो 'साहित्यलहरी' के और न 'सूरसागर' के ही समस्त कूट पदों पर टीका लिखी थी; क्योंकि साहित्य-लहरी' की भांति 'सूरसागर' में से संकलित कुछ पद भी इस प्रति में दो बार आये हैं, और उनके पाठ और टीका की भाषा में अन्तर है। यदि सरदार कवि ही इन सबका टीकाकार होता, तो वह ऐसी भूल कदापि नहीं करता।
ऐसा मालूम होता है, काशिराज ने सरदार कवि से सूर के दृष्टिकूट पदों पर एक टीका ग्रन्थ प्रस्तुत करने को कहा होगा। इसके लिए सरदार ने 'सात्यिलहरी' की किसी प्राचीन टीका में कुछ परिवर्तन कर और सूरसागर के कुछ सटीक दृष्टिकूट पदों का संकलन कर तथा कुछ पदों पर नई टीका लिखकर स्वरचित मंगलाचरण एवं पुष्पिका के साथ यह ग्रन्थ प्रस्तुत किया था।"१७.
सरदार कवि की टीका और भारतेन्दु कृत टीका में पदों की संख्या, क्रम, पाठ और अर्थ में जो भिन्नता है वह विशेष रूप से विचारणीय है । सरदार कवि, जो बा० रामदीन सिंह और मीतलजी द्वारा दी गयी जानकारी से बहुत परिश्रमी नहीं लगते, इतने परिवर्तन मनमाने ढंग से नहीं कर सकते थे। आधारभूत प्रतियों का एक सा न होना ही इसकी सन्तोषजनक व्याख्या दे सकता है। जिस प्रकार भारतेन्दु के पास सरदार की टीका युक्त हस्तलिखित प्रति के अतिरिक्त दूसरी प्राचीनतर सटीक प्रति थी, उसी प्रकार सरदार के पास भी कम से कम दो हस्तलिखित प्रतियां थीं। उनमें से एक तो टीका जो भारतेन्दु को भी मिल गयी थी और दूसरी उससे भिन्न, कम से कम उतनी ही पुरानी तथा सम्भवतः सटीक जो भारतेन्दु को उपलब्ध नहीं थी।
खण्ड २२, अंक २
१३१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org