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की सहज अनुभूति है और बदलाव की तड़प भी दीख पड़ती है । 'कीमत' - शीर्षक में प्रश्न को उभारा गया है । 'पछतावो' - शीर्षक में बात बनी नहीं लगती किन्तु नारी कल्याण में कवि उक्ति बहुत सामयिक बन पड़ी है ।
चेष्टा की है । भूण को मूंड,
राजस्थानी भाषा के मोहवश जो हमारे विचार में ठीक नहीं है, कवि ने शब्दों के स्वरूप को बिगाड़कर प्रस्तुत करने की जैसे धीरज को धीरोज, हंस्यो को हंसग्यो, सपलोटिया को सांपला, छेकड़ को छेवट, इतिहास को इतियास, टेचरी को टूचरी, इत्यादि । यह दृष्टि बदली जानी चाहिए । जब 'फोत', 'ग्रिनिज बुक', 'कानूनी', 'सिगरेट', 'लिपिस्टिक', 'पैबंद', 'कोलेज', 'बलगम', 'पम्पलेट' आदि विदेशी शब्दों को ज्यों का त्यों प्रयोग कर सकते हैं फिर हिन्दी शब्दों के साथ खिलवाड़ क्यों करते हैं ?
आशा है, कवि अपने आगामी प्रकाशनों में इस दृष्टि से बदलाव करेंगे । ७. पं० आशाधर : व्यक्तित्व और कर्तृत्व- पं० नेमचन्द डोंणगांवकर, प्रकाशक– अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन बघेरवाल संघ, कोटा (राजस्थान ), प्रथम संस्करण – १९९५, मूल्य - ५०/- रु० 1
धर्म-प्रभावना बढ़ाने के दो तरीके हो सकते हैं । एक तरीका जो अनादि काल से प्रचलित है वह निवृत्ति मार्ग के पथिकों द्वारा जनसाधारण को धर्मोपदेश का है जन समाज के किसी योग्यतम गृहस्थ और वह अपने समाज में धर्मामृत वितरण जैन धर्म के मर्मज्ञ विद्वान् भी । उन्होंने
किन्तु दूसरा तरीका यह भी हो सकता है कि को धर्म के गूढ़ रहस्य ज्ञात करा दिए जाएं का कार्य करे | पं० आशाधर गृहस्थ थे और अनगारधर्मामृत और सागारधर्मामृत दोनों लिखे हैं ।
निश्चय ही प्रवृत्ति मूलक कार्यों को करते हुए मात्र ८ मूल और १२ उत्तर गुणों के बीस व्रतों के पालन से गृहस्थ धर्म के प्रतिपालन की इतिश्री नहीं हो सकती; किन्तु साधु जो एकाकी होता है उसके लिए गृहस्थ धर्म का प्ररूपण संक्षिप्त ही पर्याप्त हो जाता है, इसलिए वह विशेष रुचि नहीं लेगा । पं० आशाधर गृहस्थ थे और गृहस्थ की सभी आवश्यकताओं से परिचित थे इसलिए उन्होंने श्रावकाचार का सांगोपांग वर्णन किया है । उनका एक श्लोक देखिए
सागार - ६.३४
इस श्लोक में निर्वेदभावना, गृहस्थ छोड़ने की छटपटाहट हैं परन्तु यह एक गृहस्थ पण्डित की उक्ति है । और प्रत्येक धर्मप्राण गृहस्थ को धर्म में अभिरुचि के लिए प्रेरणादायक है |
वस्तुतः पं० आशाधर ने जैन समाज के लिए अपने समय में एक आदर्श मौलिक आचार संहिता का निर्माण किया था। उन्होंने अपने समय की अवस्था को पहचाना
था
खंड २२,
इतः शमश्रीः स्त्री चेतः कर्षतो मां जयेनु का । आ ज्ञातपुत्ररैवात्रजेत्री या मोहराट् चमूः ॥
अंक २
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