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२. यह अस्थिर धर्म है। इसकी अनुपस्थिति में भी कोई काव्यत्व की हानि नहीं होती है
क्वचित्तु स्फुटालंकार विरहेऽपि न काव्यत्वहानि: ।
( काव्यप्रकाश - सूत्र - १ की वृत्ति) ३. काव्य की शोभा या सौन्दर्य अलङ्कार पर आश्रित नहीं रहता है । ४. सत्काव्य में अलङ्कार की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती है । प्रायः सभी आचार्यों ने शब्द और अर्थ को काव्य का शरीर माना है । अलंकार शरीर के शोभादायक होते हैं इसलिए काव्य में शब्द और अर्थ के उत्कर्षाधायक तत्त्व का नाम ही अलङ्कार है । सुन्दर एवं भव्य विचार अलंकारों का सहयोग पाकर सोने में सुगन्ध' की तरह निखर उठते हैं ।
safनकार आनन्दवर्द्धन का मानना है
अलंकारांतराणि हि निरूप्यमाण दुर्घटान्यपि रस समाहित चेतसः प्रतिभानवतः कवेः अहंपूर्विकया परांपतति ।
अलंकार प्रयोग 'रसपरत्वेन' अर्थात् रस को ही प्रधान मानकर होते हैं । अलंकार अलङ्कार्य का केवल उत्कर्षाधायक तत्त्व होता है, स्वरूपाधायक या जीवनाधायक तत्त्व नहीं । काव्य में अलंकारों की प्रधानता होनी अनिवार्य नहीं है । आवश्यकतानुसार इनका ग्रहण तथा त्याग भी अपेक्षित है ।
जैसे निसर्ग रमणीय युवती का शरीर आभूषणों का संयोग पाकर चमक उठता है, वैसे ही काव्य में अलंकार प्रयोग से काव्य की चारुता संवद्धित होती है । जयदेव ने अलंकार रहित काव्य की कल्पना, उष्णतारहित अग्नि की कल्पना के समान ही उपहासयोग्य कही है
अङ्गीकरोति यः कायं शब्दार्थावनलङ्कृती । असौ न मन्यते कस्मात् अनुष्णमनलं कृती ॥
कवि जीवन में जो कुछ अनुभव करता है, उसे वह प्रभावी ढंग से व्यक्त करना चाहता है। कोरे विचारों या वस्तु-तथ्यों में कोई आकर्षण नहीं होता । अतः कवि को अलङ्कारादि शैली - प्रसाधनों का सहारा लेना पड़ता है। यहां इस प्रश्न पर विचार करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि काव्य में अलङ्कार की अवतारणा स्वतः स्वाभाविक होती है, या ये प्रयत्नज प्रकट होते हैं । यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य अवश्य है कि भावावेश की स्थिति में वाणी में भी प्रवेग एवं शक्ति उत्पन्न हो जाती है । वाणी के वेगवान होने पर प्रतिभा सम्पन्न कवियों की अभिव्यक्ति स्वतः ही अलंकृत हो जाती है । प्रतिभावान् कवियों को इनके लिए विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता । अभिनवगुप्त ने भी कहा है
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प्रतिभानुग्रहवशात् स्वयमेव संपत्तौ ।
भवों की बाढ़ स्वत: अलंकार मणियां उगलने लगती है । कहा है
As emotion increases, expression Swells and figures from forth. (Some Concepts of Alankar V. Raghawan ) उपर्युक्त उक्ति श्रीहर्षदेव की रचनाओं के सन्दर्भ में पूर्णरूपेण सार्थक एवं उचित
तुलसी प्रज्ञा
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