________________
और उपमेय रूप वाक्यार्थों में बिम्बप्रतिबिम्बभाव की झलक कहा करते हैं
दृष्टान्तस्तु सधर्मस्य वस्तुनः प्रतिबिम्बनम् ।(१०-५०) मम्मट के अनुसार उपमेय वाक्य उपमान वाक्य एवं उनके साधारण धर्म में यदि बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव हो तो दृष्टान्त अलंकार होता है । यह साधम्यं एवं वैधर्म्य दोनों प्रकार से होता है
दृष्टान्तः पुनरेतेषां सर्वेषां प्रतिबिंबनम् । (१०-१०२) 'रत्नावली' में दृष्टान्त अलङ्कार का सुन्दर विन्यास किया गया है -
तीव्रः स्मरसन्तापो न तथादौ बाधते यथासन्ने ।
तपति प्रावृषि नितरामभ्यर्णजलागमो दिवसः ॥" इस श्लोक का भाव यह है कि वर्षा होने से पूर्व की धूप जितना जलाती है उतना अन्य काल की धूप नहीं जलाती है, उसी तरह आसन्न प्रिया मिलन से पूर्व की काम पीड़ा जितना सताती है उतना अन्य काल की काम-पीड़ा नहीं, इसमें दृष्टान्त अलंकार है। ५. समासोक्ति अलंकार
समासोक्ति अलंकार वह कहलाता है जिसे 'सम' अर्थात् (प्रस्तुत और अप्रस्तुत में) समान रूप से समन्वित होने वाले कार्य, लिङ्ग और विशेषण के बल से, प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के व्यवहार का आरोप कहा जाता है। आचार्य विश्वनाथ ने इसकी परिभाषा इस प्रकार दी है
समासोक्तिः समैर्यत्र कार्यलिङ्गविशेषणः ।
व्यवहारसमारोपः प्रस्तुतेऽन्यस्य वस्तुनः ।। (१०-५६) आचार्य मम्मट के अनुसार प्रस्तुत अर्थ के प्रतिपादक वाक्य के द्वारा श्लेषयुक्त विशेषणों के प्रभाव से जो अप्रकृत अर्थ का कथन है वह समास से अर्थात् संक्षेप से प्रकृत तथा अप्रकृतरूप दोनों का कथन होने से समासोक्ति अलंकार कहलाता है--
'परोक्तिमदकैः श्लिष्टः समासोक्तिः । (१०-१४७) समासोक्ति अलंकार के उदाहरण स्वरूप रत्नावली में निम्न श्लोक दृष्टव्य
आरुह्य शैलशिखरं त्वदनापहृतकान्ति सर्वस्वः ।
प्रतिकर्तुमिवोर्ध्वकारः स्थितः पुरस्तान्निशानाथः ।। (III-१२) इसका तात्पर्य यह है कि जैसे लोक में देखा जाता है कि किसी का सर्वस्व अपहृत किये जाने पर वह उसका प्रतिकार करने के लिए कुछ ऊंचे स्थान पर जाकर और बांहें ऊपर करके सर्वस्व अपहर्ता को ललकारते हुए मानो खड़ा होता है उसी तरह चन्द्रमा तुम्हारे मुख के द्वारा अपहृत कान्ति होने पर उदयाचल पर चढ़कर किरणों को ऊपर करके स्थित हुआ है । यहां समासोक्ति अलङ्कार है। ६. स्वभावोक्ति अलङ्कार
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'स्वभावोक्ति' वह अलङ्कार है जिसे दुरुह अर्थात् सूक्ष्म अथवा कल्पनाशील कविजन द्वारा संवेद्य, पदार्थों के स्वरूप, उनकी क्रियामों का
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org