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स्पृष्टस्त्वयैष दयिते स्मरपूजाव्यापृतेन हस्तेन ।
उद्भिन्नापरमृदुतरकिसलय इव लक्ष्यतेऽशोकः ॥" हे प्रिये ! यह अशोक वृक्ष तुम्हारे द्वारा कामदेव की पूजा में लगे हुए हाथ से स्पर्श किया जाने पर, निकले हुए अत्यन्त कोमल पल्लव से युक्त की तरह मालूम पड़ रहा है । अर्थात् ऐसा लगता है कि मानो इसमें एक दूसरा अतिकोमल पल्लव निकल आया हो।
यहां महारानी के करपल्लवस्पर्श से अशोक में नवपल्लव उग आने की उत्प्रेक्षा की गई है। ३. अर्थान्तरन्यास
___ अन्य अर्थ का न्यास अथवा रखना अर्थान्तरन्यास अलंकार कहलाता है। इसमें दो शब्द हैं-अर्थान्तर और न्यास। इसमें साधर्म्य अथवा वैधर्म्य के द्वारा, "सामान्य' का विशेष से 'विशेष' का सामान्य से, 'कार्य' का कारण से और 'कारण' का कार्य से समर्थन कहा गया है । साहित्यदर्पणकार ने इसे इस प्रकार कहा है
सामान्यं वा विशेषेण विशेषस्तेन वा यदि ।
कायं च कारणेनेदं कार्येण च समर्थ्यते ॥ भामह के अनुसार पूर्व अर्थ से सम्बद्ध कथित अर्थ के अतिरिक्त अन्य अर्थ के वर्णन में अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है। आचार्य मम्मट ने इसकी परिभाषा दी है
सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते ।
यत्र सोऽर्थान्तरन्यासः साधर्म्यणेतरेण वा ॥६ 'रत्नावती' में इस अलंकार का विविध स्थलों में प्रयोग हुआ है--
दुरां कुसुमशरव्यथां वहन्त्या। कामिन्या यदमिहितं पुरः सखीनाम् ॥ तद्भूयः शिशुशुकसारिकाभिरुक्तं ।
धन्यानां श्रवणपथातिथित्वमेति ॥" इस श्लोक में सामान्य से विशेष का समर्थन होने के कारण अर्थान्तरन्यास अलंकार है। द्वितीय उदाहरण
समारूढ़ा प्रीतिः प्रणयबहुमानादनुदिनं । व्यलीकं वीक्ष्येदं कृतमकृतपूर्व खलु मया ।। प्रिया मुञ्चत्यद्य स्फुटमसहना जीवितमसो ।
प्रकृष्टस्य प्रेम्णः स्खलितमविषह्यं हि भवति ॥८ ४. दृष्टान्त अलंकार
उदाहरण को ही. दृष्टान्त कहा जाता है। इसमें दो वाक्य होते हैं-एक उपमेय वाक्य तथा दूसरा उपमान वाक्य और दोनों में साधारण धर्म भिन्न होते हैं। इसमें किसी तथ्य के प्रतिष्ठापन के लिए उसके सदृश अन्य बात कही जाती है। साहित्यदर्पणकार के अनुसार 'दृष्टांत' वह अलंकार है जिसे समान धर्म से युक्त उपमान
खण्ड २२, अंक २
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