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सं० १६०७ का अर्थ ग्रहण करने में मुख्य आपत्ति यह रही है कि 'रसन' मा अर्थ 'शून्य' नहीं हो सकता। किंतु सरदार कवि आदि ने कभी भी यह नहीं कहा कि 'रसन' का अर्थ 'शून्य' है। मुनि-७, पुनिपूर्ण=0, रसन के रस-६, दसन गोरीनन्द को=१, इस प्रकार 'अङ्कानां वामतो गतिः' के नियम से निकल आता है । इसमें 'रसन के रस' को खंडित नहीं किया गया, न 'पुनि' को निरर्थक समझा गया है जैसा कि सं० १६१७ और सं० १६२७ अर्थ मानने वाले करते हैं। सं० १६१७ का अर्थ निकालने के लिए 'रसन' (रसना) से 'दो' का ग्रहण विशेष रूप से आपत्तिजनक है क्योंकि दो जीमें तो सापों की ही सुनी जाती हैं। सं १६७७ का अर्थ तो 'साहित्य-लहरी' को सूर-कृत न मानने क आग्रह की उपज है।
पद में 'नवीन' का प्रयोग सूर के लिए नहीं, 'नन्दनन्दनदास' के लिए किया गया है इसमें संदेह नहीं क्योंकि जिस कवि ने वंशावलीवाले पद में अपने को अष्टछाप का सर बताया (थपि गुसाई करी मेरी आठ मध्ये छाप) वही दूसरे पद में अपने को 'नवीन सूर' नहीं कह सकता । वल्लभ-सम्प्रदाय में कई कृष्णदास थे, 'नन्दनन्दनदास' विशेषण बनके लिए उपयुक्त ही था। नन्ददास जब आये तो एक 'नीवन नन्दनन्दनदास' हो गये । वल्लभ-सम्प्रदाय में इस घटना का समय सं० १६०७ मानना परम्परानुकूल है । अतः सूर ने सं० १६०७ में नन्ददास के लिए 'साहित्यलहरी' रची ऐसा मानना ही उचित ठहरता है।
फिर भी आपत्ति रह जाती है नक्षत्र और वार के बारे में । डा० माता प्रसाद गुप्त ने १७ वीं शती के प्रत्येक दशक के सातवें सं० की अक्षय तृतीया के वार और नक्षत्र की गणना की थी, जिसके फल देते हुए वे मीतलजी कहते हैं-"संवत् १६१७ की अक्षय तृतीया को रविवार तो था, किंतु नक्षत्र कृत्तिका न हो कर मृगशिरा था; और सं० १६२७ की अक्षय तृतीया को कृत्तिका नक्षत्र तो था किंतु वार रवि न होकर शनि था। सं० १६०७ और सं० १६७७ को अक्षय तृतीया को न तो रविवार था न कृत्तिका नक्षत्र ही । इस प्रकार ‘साहित्यलहरी' के रचनाकाल की समस्या का संतोषजनक समाधान गणना द्वारा भी नहीं हो पाता है । इससे यही समझा जावेगा कि या तो पद के दृष्टिकूट पदों में कोई भूल है अथवा गणना करने में कोई त्रुटि हुई है।
मेरी विनम्र सम्मति में समाधान सम्भव है। डा० माताप्रसाद गुप्त ने बताया है कि सं० १६०७ की अक्षय तृतीया को शनिवार और रोहिणी नक्षत्र था। यहां शनि के अतिरिक्त रवि को तृतीया होना सम्भव है और शुभ कार्यों में उसी का ग्रहण किया गया होगा। ऐसा होता ही रहता है। सं० २०३९ में अक्षय तृतीया सोमवार मानी गयी जबकि २५ अप्रैल १९८२ को ही तृतीया लग गयी थी। नक्षत्र फिर भी उलझन में डालता है। हस्तलेखों के अब अप्राप्य होने से हम नहीं कह सकते कि प्रेस-कापी तैयार करने वालों ने हस्तलेख को पढ़ने-लिखने में भूलचूक नहीं की। लिपिकारों की असावधानी अथवा अज्ञता से भी मूल पाठ विकृत होना सम्भव है । कुछ भी हो, ततीय रिच्छ' की जगह मूल पाठ 'तुरिय रिच्छ' था यह सम्भावना विचारणीय है। तरियतुरीय-चतुर्थ नक्षत्र रोहिणी है जो सं० १६०७ में अक्षय तृतीया के दिन अवश्य ही था।
खण्ड २२, अंक २
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