________________
आखिर पिता हिमालय की आज्ञा प्राप्त कर वह घने जंगल में घोर तप का आलम्बन लेती है, शरीर की सुरक्षा तक की भी उपेक्षा कर देती है, उस समय शिव स्वतः प्रकट होते हैं और प्रेम की परीक्षा के बाद उसे स्वीकार कर लेते हैं । अतः कवि द्वारा शिव-पार्वती के प्रेम को आदर्श बनाना ही इस बात का परिचायक है कि प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक संगठन पर मुग्ध न होकर चैतसिक मुग्धता को प्राप्त करे। जिसे प्राप्त करने के लिए संसार-विमुख योगी, संन्यासी भी आतुर रहते हैं।
(३) एक और घटना-प्रसंग इस चारित्रिक उज्ज्वलता को परिपुष्ट करने वाला है, वह यह है कि कवि ने कार्तिकेय का न्यास करने वाले शिव
___ छम्मुहणासाणं....२ __ इस पद की प्रतिष्ठा की है। इसके द्वारा कवि ने ग्रन्थ का श्रेष्ठतम उद्देश्य घोषित कर दिया है।
___कार्तिकेय भगवान् शंकर के पुत्र हैं पर उनके जन्म में किसी स्त्री का प्रत्यक्ष संसर्ग नहीं है । पौराणिक कथा है कि एक बार शिवजी ने अपना वीर्य अग्नि में फेंका पर उसे धारण करने में अपने आपको असमर्थ महसूस कर अग्नि ने उस वीर्य को गंगा में छोड़ दिया। गंगा में स्नानरत छः औरतों में वह वीर्य सक्रान्त हुआ। उन छहों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया। उन छहों का एकीकरण करने पर कार्तिकेय षण्मुख कहलाए।
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि कवि ने कार्तिकेय का न्यास करने वाले शिव' जो विशेषण दिया है वह पाठकों व सामाजिकों में उस तपस्या व साधना जनित सामर्थ्य को जगाने की सटीक प्रेरणा है, जहां संभोग बहुत तुच्छ होकर रह जाता है। प्रेम शरीर की सीमा को छोड़कर आत्मा की भूमिका में पहुंच जाता है।
श्लोक संख्या चार में शिव की जय-जयकार की गई है। पर इसमें भी कवि का उद्देश्य रहस्यमय बना हुआ है। कवि ने कहा - 'पार्वती को प्रसन्न करने वाले शिव । पार्वती और गंगा दोनों शिव की पत्नियां हैं पर यहां गंगा की उपेक्षा कर पार्वती को प्रमुखता देने का कारण भी यही है कि पार्वती ने जिस तप, साधना व चारित्रिक निष्ठा के द्वारा शरीरातीत, अतीन्द्रिय प्रेम को प्राप्त किया था, जिसकी तपस्या के आगे शिव को भी झुकना पड़ा था। उस प्रेम की प्रतिष्ठा करना अर्थात जहां प्रेम का सही स्वरूप प्रकट होता है वहां शिव भी नतमस्तक होते हैं अतः हम यह जानें कि प्रेम का अर्थ अर्थात् सौन्दर्य का अर्थ असीम है और उसे असीम ही बना रहने दें। ____ इस प्रकार प्रारम्भ से लेकर अन्त तक अनेकों घटना-प्रसंग ऐसे हैं जो सच्चिदानन्द की प्रतिष्ठापना करते हैं। इसके अतिरिक्त सौन्दर्य के कुछ ऐसे सिद्धान्त भी उपलब्ध हैं जिनका स्तर शारीरिक नहीं चैतसिक है, जहां वासना की गंध नहीं प्रेम का स्रोत है, श्रम की थकान नहीं आनन्द का प्रवाह है। मनोरंजन के लिए प्रस्थापित इस ग्रन्थ में कवि ने निश्चित रूप से दो अश्वों पर सवारी की है। सट्टक विधा के रूप में प्रस्तुत ग्रन्थ लोकानुरंजन तो करता ही है साथ ही साथ ऊर्ध्वलक्ष्य की ओर गति करने की रहस्यमय प्रेरणा भी प्रदान करता है।
१४२
तुलसी प्रज्ञा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org