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निरन्तर सफलता की ओर गति होती है वहां प्रेम की रचना होती है।
इन्द्रिय-व्यापार युक्त प्रेम घृणित व निन्दित हो सकता है पर शुद्ध प्रेम वास्तव में दुर्लक्ष्य होता है । इसी बात की पुष्टि के लिए कवि ने कहा---
दुलक्ख पि पअडेइ जणो जअम्मि । __जो प्रेम इन्द्रिय व्यापार तक सीमित रहता है वह प्रेम नहीं वासना है । शुद्ध प्रेम का आधार तो चित्त ही होता है । जो इन्द्रियों से दुर्लक्ष्य होता है।
___ शारीरिक सौन्दर्य को नगण्य मानकर शुद्ध सौन्दर्य की संस्थापना में कवि वचन प्रमाण है
कि लोअणेहिं तरलेहि........।" अर्थात् चंचल नेत्र, चन्द्रसदृश उन्नत स्तन आदि एक भी कारण प्रमुख नहीं है जिनसे कि प्रेमी हृदय में प्रेमिका स्थान ग्रहण करती। वह तो कुछ और
प्रस्तुत ग्रन्थ का अन्तिम श्लोक भी कवि के महान् उद्देश्य को शत-प्रतिशत प्रमाणित कर रहा है, जिसमें कवि ने सज्जनों के कल्याणवर्धन व दुर्जनों के अभाव की कामना की है। ब्राह्मणों में विडम्बना रहित पूर्ण ब्राह्मणत्व की आशा की है ताकि उनका हर आशीर्वाद सत्य हो, अर्थात् ब्राह्मण सच्चे तपस्वी और मनीषी हों। इसी प्रकार लोभ से दूर रहना, धर्म में विश्वास करना आदि कथन इस बात की ही पुष्टि करते हैं कि कवि का स्तर व दृष्टिकोण दोनों ही उदार व विशाल है। जो केवल शृंगारिक नहीं, महान् उद्देश्य संयुक्त है।"
इस प्रकार ग्रन्थ में ऐसे पदों का प्रयोग सर्वत्र बिखरा पड़ा है जो कवि के सात्विक विचारों व दृष्टिकोणों का परिचायक है। इसी क्रम में कुछ घटना प्रसंग भी ग्रन्थ की उदात्तता व चारित्रिक विशालता को प्रतिस्थापित करते हैंघटना प्रसंग
(१) 'कपरमञ्जरी' ग्रंथ के श्लोक संख्या दो में कवि ने कामदेव व रति की क्रियाओं को नमस्कार करने की प्रेरणा दी है, जो कवि के महत् उद्देश्य को स्पष्ट रूप से व्यक्त कर रही है । कामदेव अशरीरी है अतः उसकी रति के साथ आलिंगनादि शारीरिक क्रियाएं कभी भी संभव नहीं होती। कवि का उद्देश्य भी यही है। नायक चन्द्रपाल व नायिका कर्पूरमञ्जरी का जो चित्रण किया गया है वह इसी उद्देश्य से कि पाठक उसे शारीरिक स्तर तक ही सीमित न मानें, बल्कि सृष्टि का हर जोड़ा काम व रति के समान शरीरादि क्रियाओं से रहित स्वच्छ, पवित्र और वासनारहित हो।
(२) इसी प्रकार श्लोक संख्या तीन में कवि ने शिव और पार्वती के प्रेम को आदर्श रूप में संस्थापित किया है। यह भी इस बात का ही परिचायक है कि शिव का पार्वती के साथ समागम कितना उच्चस्तरीय समागम था तथा तप और साधना से संयुक्त समागम था ।२२ 'कुमारसम्भव' का प्रसंग है---
पार्वती ने रूप के आधार पर शिव को पाना चाहा पर वह असफल रही।
खण्ड २२, अंक २
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