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बनता है जो महदेश्वर्य का सूचक है। तात्पर्य है वैसी रूप सम्पन्ना युवति जो परमविभूति और अनाविल ऐश्वर्य की खनि हो । णतेंदीवरदीहिआ
__ काव्यजगत् में नेत्रों को प्रायः कमल की उपमा से उपमित किया जाता है। आमतौर पर नेत्रों को कमल की उपमा देने का अर्थ भी आंगिक सौन्दर्य तक ही सीमित रह गया है। लेकिन यदि हम नेत्रों को कमल की उपमा निर्लिप्तता से लगाएं तो इसके हार्द तक पहुंचने में सफल हो पायेंगे क्योंकि व्यक्ति की दृष्टि ही पवित्रता व अपवित्रता का प्रथम कारण होती है। कर्पूरमञ्जरी में भी वणित कमल की उपमा आंगिक सौन्दयं तक ही सीमित नहीं है, वह दृष्टि पावित्र्य का भी स्पर्श करती है। चित्ते पहट्टइ ण खुट्टा सा गुणेसु
चित्त पर अधिकार कर लेती है लेकिन गुण सर्वदा बढ़ते रहते हैं। यहां क्षणक्षण वर्धमान उसका सौन्दर्य गुणाधारित सौन्दर्य है। यदि यहां सौन्दर्य क्षण-क्षण वर्धमान नहीं होता तो वह निश्चय ही वासनाजनक होता और जिसे हम तुच्छता की संज्ञा भी दे सकते थे लेकिन यहां तो आंगिक व गुणसंयुक्त उसका सौन्दर्य स्वतः पूज्य बन पड़ा है । जो नित्य नूतन है, चिर नवीन है। ___असीम सौन्दर्य का प्रत्यक्ष दर्शन करवाने वाली इस पंक्ति के तात्पर्य को कौन नकार सकता है.....
सेज्जाए लुट्टदि विसप्पइ दिम्मुहेसुं ।" अर्थात् जो सतत शय्या पर लौटती है पर शरीर का विषय नहीं बनती है वह तो चहुं दिशाओं में व्याप्त है अर्थात् कण-कण में उसका अस्तित्व समाया हुआ है तो वह शारीरिक चेष्टा का विषय बन भी कैसे सकती है। जो सर्वत्र व्याप्त है फिर भी जिसका आंगिक ग्रहण असंभव है।
____ इसी प्रकार उसकी दृष्टि में एक अपूर्व शक्ति संयोजित है। जिस किसी व्यक्ति पर इसका हल्का सा दृष्टिपात भी होता है वह व्यक्ति अहंकार विलय की अवस्था को प्राप्त होता है। वह उसमें इतना अनुरक्त हो जाता है कि स्व स्वरूप (अहं) को क्षीण कर उसी रूपमयता को प्राप्त हो जाता है और यदि उसकी यह शक्ति संयुक्ता (कृपापूर्ण) दृष्टि पूर्ण रूप से किसी पर निष्पतन करती है तो वह व्यक्ति तो पूर्ण रूप से ही विकार रहित हो जाता है। वह तिलाञ्जलिदान योग्य हो जाता है, अर्थात् मर जाता है। उसके सम्पूर्ण विकार नष्ट हो जाते हैं। केवल शुद्ध स्वरूप ही शेष रहता है। यही कारण है कि कर्पूरमञ्जरी में वर्जित कर्पूरमञ्जरी का सौन्दर्य कभी भी हल्के स्तर का नहीं हो सकता। उसके पीछे अत्यधिक तप, संयम और आत्मिक पवित्रता का आधार निश्चित रूप से दृष्टिगोचर होता है तभी तो
जे तीअ तिक्खचलचक्खुतिहाअदिट्ठा......" कहकर उसके सौन्दर्य का गुणगान किया गया है। उसकी आंखों को कमल समझकर भौंरे वहां मंडराते रहते हैं, अर्थात् जिसकी
बंड २२, मंक २
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