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सूरसागर में दिखाई पड़े बड़े अच्छे जान पड़े और उन्होंने घोषणा की कि सूरदास के और दृष्टिकूटों का जो पता लगाएगा उसे पारितोषिक दिया जाएगा। सूरदास के दृष्टिकूटों का एक संग्रह उस समय 'सूर - शतक' के नाम से प्रकाशित हुआ था । इसके सभी दृष्टिकूट सूरसागर के हैं और सभी अपेक्षाकृत सरल हैं" । "
'सूर - शतक' की विषय-वस्तु के बारे में इतने अनिश्चय और मतभेद का एक कारण तो यह है कि भारतेन्दु-युग का वह प्रकाशन बहुत पहले अप्राप्त हो चुका है । फिर उसी नाम के दो एक संग्रह और भी हुए हैं जो सूरसागर के पदों को चुनकर किये गये थे । इनमें से एक 'सूर - शतक' वल्लभ - सम्प्रदाय के कवि बालकृष्ण द्वारा सं १६७७ के लगभग सटीक संकलित किया गया था और बम्बई से मुद्रित ठाकोरदासवाली "दो सौ बावन वैष्शवन की वार्ता" के अन्त में मुद्रित हुआ था ।' स्पष्टतः यह भारतेन्दुयुग के 'सूर - शतक' से भिन्न है । श्री जवाहरलाल चतुर्वेदी का कहना है काशी के बाबू बालकृष्ण दास ने सन् १८८२ ई० में टीका लिखकर सन् १८८९ में खडग्विलास प्रेस aintyre " सूरशतक पूर्वाधं अर्थात् सूरदासजीकृत पदों की टीका" नाम से छपाई थी । जिसे 'भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र द्वारा संगृहीत, परिवर्धित और संशोधित' बताया गया था। इसकी विषय-वस्तु साहित्य-लहरी वाली ही थी किन्तु चतुर्वेदीजी के अनुसार इसमें 'मुनि पुनिरसन के रस लेख' पद नहीं था अतः उनके मत में साहित्यलरी नाम प्रामाणिक नहीं ।"
साहित्यलहरी और भारतेन्दु
दास
श्री जवाहरलाल चतुर्वेदी की धारणा के विपरीत सन् १८८२ की टीका ही साहित्यलहरी की सबसे पुरानी टीका नहीं है, न १८८९ ई० की प्रकाशित प्रति ही सबसे पुरानी मुद्रित प्रति है । सरदार कवि की टीका बालकृष्ण दास की टीका से ३५ वर्ष पहले सं. १९०४ में लिखी गयी । उस टीका का प्रथम मुद्रण भी बालकृष्ण की टीका के मुद्रण के बीस साल पहले सन् १८६९ ई० में हुआ " बनारस के लाइट प्रेस से लीथो में छपी उक्त प्रति का उपयोग श्री प्रभुदयाल मीतल ने साहित्यलहरी के सम्पादन में किया है । उनकी सूचना के अनुसार सन् १८६९ की प्रति में १०८ वां पद रचनाकाल का है और १०९ वां पद वंश परिचय का है । सन् १८९२ ई० में बॉकीपुर
खविलास प्रेस से छपी भारतेन्दु की टिप्पणी युक्त प्रति में भी १०९ पद रचनाकाल का और ११८ वाँ वंशपरिचय का है । 'साहित्यलहरी' नाम भी दोनों प्रतियों में मिलता है ।" भारतेन्दु की टिप्पणियों वाला संस्करण छपा तो बालकृष्णदास वाली प्रति के तीन वर्ष बाद किन्तु उसकी टिप्पणियां सन् १८८९ के कम से कम छः वर्ष पहले लिखी होंगी क्योंकि भारतेन्दुजी की मृत्यु सं. १९४१ में हुई । अतएव सन् १८८९ की प्रति में दो पद किसी कारण सचमुच छूट गए या छोड़ दिये गये तो भी यह सचाई बनी ही रहती है कि साहित्यलहरी नाम और दोनों पदों से भारतेन्दु हरिश्चंद्र, बाबू राधाकृष्णदास और बाबू रामदीनसिंह (खड विलास प्रेस के मालिक ) परिचित थे और उन्हे प्रामाणिक मानते थे ।
वेङ्कटेश्वर प्रेस से सूरसागर का प्रथम संस्करण सं० १९५३ में निकला था। बाद
खंड २२, अंक २
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