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आयारो में हिंसा-अहिंसा विवेक
सुरेन्द्र वर्मा
आयारो जैन आगम-साहित्य का एक प्रतिष्ठित धर्म-ग्रंथ है जो मनुष्य के हिंसाहिंसा-विवेक को जगाता है । इसके अनुसार मनुष्य के सभी हिंसक कर्म (कर्म-समारम्भ) जानने और त्यागने योग्य (परिज्ञा-तव्य) होते है।'
जैन दर्शन, जैसा कि हम सभी जानते ही हैं, एक अहिंसक जीवन पद्धति का पक्षधर है। अहिंसा की यह पक्ष-धारणा, जैन दर्शन में केवल शास्त्रीय न होकर व्यावहारिक जीवन के सूक्ष्म निरीक्षण पर टिकी हुई है । आयारो में हमें अपने वास्तविक हिंसाप्रेरित जीवन का एक कच्चा चिट्ठा देखने को मिलता है। जीवन के इस वास्तविक स्वरूप को जानकर ही, जो निश्चित ही हिंसा से परिपूर्ण है, आयारो अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचाता है कि हिंसा को हम जिन-जिन प्रयोजनों के लिए अपनाते हैं,उन सभी के लिए वह अंततः निरर्थक सिद्ध होती है। मनुष्य हिंसा क्यों करता है ?
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि मनुष्य की हिंसा का दायरा बहुत विस्तृत है। वह सभी प्रकार के जीवों (पृथ्वीकायिक, जल कायिक, अग्निकायिक, वनस्पति कायिक, त्रसकायिक तथा वायुकायिक) की हिंसा करता है, और यह हिंसा वह स्वयं अपने स्वार्थ के लिए करता है । आयारो में सभी प्रकार के जीवों की हिंसा का हवाला देते हुए, बार बार यह बताया गया है कि मनुष्य ही
वर्तमान जीवन के लिए प्रशंसा, सम्मान, और पूजा के लिए जन्म मरण और मोचन के लिए
दुःख प्रतिकार के लिए हिंसक-कर्म का समारंभ करता है। वह समझता है इससे उसका जीवन अधिक समृद्ध और अधिक सुखकर होगा। अपने जीवन की सुरक्षा के लिए मनुष्य दूसरे जीवों का वध और शोषण करता है। उनके मांस, रक्त और दंत आदि से विविध औषधियों का निर्माण करता है और उनको उपयोग में लाता है । अपनी प्रसिद्धि और कीति के लिए बड़े-बड़े और शक्तिशाली पशुओं का आखेट करता है और इस प्रकार जीव- जगत में अपना वर्चस्व बनाए रखता है । वह अपने सम्मान के लिए धन-बल अजित करता है और इसके लिए भी शोषण और हिंसा का ही सहारा लेता है। अपनी पूजा करवाने के लिए वह युद्ध और संघर्ष करता है और न जाने कितने अबोध प्राणियों की जीवन
खण्ड २२, अंक २
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