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'ब्रह्म' को तत्त्व माना। किन्तु ये सभी मत एक-दूसरे के विरोधी हैं । अत: न तो ये सभी मत सत्य हैं और न ही इन विभिन्न दार्शनिकों द्वारा मान्य विभिन्न तत्त्वों को तत्त्व के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । इसलिए यह प्रश्न अब भी उठता है कि 'तत्त्व' क्या है ? टित्पणी : वैदिक भाषा के हार्द को भनेकों भाष्यकारों ने खोला है; किन्तु लेखक ने
उसे जानने की कोशिश नहीं की? इसीलिए मूल प्रश्न को ऊहापोह करके अन्त में ज्यों का त्यों अनुत्तरित छोड़ दिया है ।
-संपादक
सन्दर्भः१. प्रस्तुत लेख में, वैदिक साहित्य में जो तत्त्व सम्बन्धी विचार हैं उनका भाषायी
एवं दार्शनिक विश्लेषण नहीं किया गया है, अपितु उनको वैचारिक रूप से,
(ऐतिहासिक एवं कालिक रूप से नहीं) क्रमबद्ध करने का प्रयास किया गया है। २. यहां वैदिक साहित्य में मुख्य रूप से संहिता, बाह्मण और उपनिषद् ग्रन्थों को
लिया गया है। ३. जिससे जगत् और उसके समस्त विषयों की उत्पत्ति हो, जो समस्त विषयों की
सत्ता का आधार हो और जिसमें समस्त विषयों का लय हो, उसे तत्त्व या जगत्
का मूल कारण माना जा सकता है। ४. तैत्तरीय ब्राह्मण II २. ९. १, सूयगडो-में उद्धृत,पृ.६ः, जैन विश्व भारती,
लाडनूं, राजस्थान, प्रथम संस्कारण, १९८४ ५. शतपथ ब्राह्मण, ६. १. १, सूयगडो-१ में उद्धृत, पृ. ६२, जैन विश्व भारती
__ लाडनं, राजस्थान, प्रथम संस्करण, १९८४ ६. तैत्तिरीय उपनिषद्, ब्रह्मानन्दवल्ली-सप्तम् अनुवाक, ईशादि नौ उपनिषद् में
संकलित, गीता प्रेस गोरखपुर, बारहवां सस्करण, सं. २०४७ ७. उपनिषद्-दर्शन का रचनात्मक सर्वेक्षण, पृ० ५९, रानाडे, रामचंद्र दत्तात्रेय,
राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, प्रथमावृति, १९८३ ८. वही, पृ० ५८ - ९. कुछ विचारकों ने "असत्" को " अव्यक्त" के अर्थ में लिया है और कुछ
विचारकों ने "अभाव" के अर्थ में । किन्तु यहां यह प्रश्न विचारणीय है कि वेदों
तथा उपनिषदों में "असत्" का वास्तविक अर्थ क्या है। १०. छांदोग्य उपनिषद्, अध्याय ६, २/१-२, उपनिषद् दर्शन का रचनात्मक सर्वेक्षण
में उद्धृत, पृ० ४१ व ६०, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, प्रथमा
वृत्ति, १९८३ ११. ध्यातव्य है कि प्रस्तुत लेख में जो वैचारिक क्रम अपनाया गया है वह केवल
विभिन्न मतों को एक क्रमिक रूप से प्रस्तुत करने की सुविधा के लिए अपनाया जा रहा है, न कि उन मतों या विचारों का विकास इस क्रम से हुआ है। यह सम्भव ही नहीं, बल्कि ऐसा है भी, कि इन मतों या विचारों का विकास इस क्रम से नहीं हुआ है।
बण्ड २२, अंक २
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