Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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अच्छे सुझावके लिये पूर्ण क्षेत्र है। हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि ये सशोधन तब तक सम्भवनीय कोटिमें ही रहेंगे जब तक कि उनका समर्थन किन्हीं प्राचीन प्रतियोंके पाठोंसे न हो जाय।
प्रतियोंके कुछ पत्रोंपर संदृष्टियां इसप्रकार रखी गई हैं कि बहुधा इस बातका निर्णय करना कठिन है कि उनका सम्बन्ध किन गाथाओंसे हैं। कहीं कहीं उनमेंकी संख्यायें सर्वथा शुद्ध नहीं हैं, और कहीं कहीं वे समझमें भी नहीं आतीं, जैसे- पृ. ११ गा. ९१ पृ. १७ गा. १३८, पृ. २५ गा. १८०, पृ. ३३ गा. २२०, पृ. ५० पंक्ति ४, पृ.६६ गा. ९५, पृ. ८३ गा. १९५, व पृ. ९९ गा. २८८ इत्यादि । प्रथम दो प्रकारके स्थलोंपर गाथाओंके सावधानतापूर्वक अर्थनिर्णयसे संदृष्टियोंके स्थानका निर्णय करने में सहायता मिली है। किन्तु अन्तिम प्रकारके स्थलोंपर संदृष्टियोंको मूलके अनुसार रखकर ही छोड़ देना पड़ा है । हमारा यह निश्चित मत है कि दोनों ही प्रतियोंमें कहीं कहींपर कुछ गाथायें छूट गई हैं। उदाहरणार्थ द्वितीय महाधिकारमें गाथा १९३-१९४ के बीच, चतुर्थ महाधिकार गाथा ६८०-६८१, १०५१-१०५२. २४१५-२४२६ व २४४९-२४५० के बीच। कुछ गाथाओंकी रचना एक ही ढांचेकी है और इसीके सहारे हम कहीं कहीं त्रुटित गाथाओंकी पूर्ति कर सके। ऐसे कल्पित पाठोंको कोष्टकमें रक्खा गया है ( देखो पृ. १७९, १८०, १८१, १८२, २२८, २२९, ४८९)। कोष्टकका उपयोग प्रायः सम्पादकीय कल्पनाओंके लिये किया गया है। गद्य भाग इतने भ्रष्ट हैं कि उनमें सम्पादक बहुत चकराये । किन्तु सौभाग्यसे कुछ स्थलोंपर धवला टीकासे सहायता मिली, जिसके कर्ताने तिलोयपण्णत्तिका उपयोग किया है । ( देखो ति. प. पृ. ४३-४६, ध. पु. ४ पृ. ५१-५५; ति. प. पृ. ४८, ४९, ध. पु. ४ पृ. ८८-९१ )।
जिन पाठविवेचकोंको ऐसे ग्रन्थोंके सम्पादन करनेका अनुभव है वे वर्तमान सम्पादकोंके इस पाठव्यवस्थासम्बन्धी प्राथमिक प्रयासको सहानुभूतिपूर्वक देखेंगे ऐसी आशा है। वे जो कुछ विधानात्मक समालोचना करेंगे उसका सम्पादक धन्यवादपूर्वक स्वागत करेंगे । अनुभवने हमें एक
और, विशेषतः जैन समाजमेंसे, ऐसे समालोचकगणका ध्यान रखना सिखाया है, जिन्हें विवेचनात्मक पाठसंशोधनप्रणालीका परिचय नहीं ह और जो उपदेशक भावके साथ यह कह कर इस प्रयासकी उपेक्षा करेंगे कि पाठको और भी अच्छे रूपमें प्रस्तुत करना चाहिये था। किन्तु उचित यही है कि उनकी कटु समालोचनाकी विशेष परवाह न की जाय । हमारा उनसे केवल यही निवेदन है कि बहतर प्रयास करनेसे उन्हें किसीने नहीं रोका तथा स्वयं उनका बहतर प्रयास भी आदर्शसे कोसों दूर रहेगा- ' न हि वन्ध्या विजानाति परप्रसववेदनाम् ' । यह तो एक प्राथमिक पाठ-- व्यवस्थाका प्रयास है। आशा यही की जाती है कि और अधिक प्राचीन प्रतियोंके पाठ मिलाये जाय और तिलोयपण्णत्तिके पूर्ण समालोचनात्मक पाठपर पहुंचने के लिये और और प्रयास किये
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