Book Title: Tiloy Pannati Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 22
________________ [१३] उनके अनुसार तिलोयपण्णत्तिकी प्रतियां आरा, कारंजा, मूडबिद्री, पूना और जयपुर जैसे स्थानोंमें विद्यमान हैं । प्रस्तुत संस्करण इन स्थानोंके इस विषयमें रुचि रखनेवाले जिन विद्वानोंके हाथोंमें पहुंचे उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे मुद्रित पाठका अपने यहांकी प्रतियोंसे मिलान करें और कमसे कम किसी एक अंशके मुख्य मुख्य पाठभेदोंकी हमें सूचना देने की कृपा करें । ३ सम्पादन शैली तिलोयपण्णत्तिके सम्पादकोंका मार्ग पुष्पाच्छादित नहीं, किन्तु बहुत कण्टकाकीर्ण रहा है, तथा अनेक कारणोंसे उनकी कठिनाइयां प्रायः अनुलंघनीय हैं। प्रथम तो तिलोयपण्णत्तिका विषय ही बहुत गूढ़ है, जो बडे व्यवसायी विशेषज्ञको छोडकर अन्य किसीके लिये विशेष आकर्षक नहीं है । इसी कारण प्राचीन साहित्यकी इस शाखाका अध्ययन अभी तक अपने बाल्यकाल में ही है। दूसरे, तिलोयपण्णत्तिका सम्बन्ध साहित्यकी एक ऐसी शाखासे है, जिसके ग्रन्थोंकी संख्या जैन साहित्य भंडारमें अपेक्षाकृत अल्प ही है। यद्यपि किरफेल सा. ने जैन लोकज्ञानका संग्रहात्मक व्यवस्थित विवरण दिया है, तथापि अर्धमागधी साहित्यके ' सूरियपण्णत्ति, ' ' जंबूद्दीवपण्णत्ति ' और ' चंदपण्णत्ति ' तथा नेमिचन्द्रकृत 'तिलोयसार', सिंहसूरिकृत ' लोकविभाग', पद्मनन्दिकृत ' जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति', इन्द्रवामदेवकृत · त्रैलोक्यदीपिका', शुभचन्द्रकृत ' त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति ' आदि प्रन्थोंका स्वतंत्रतासे अथवा तद्विषयक अन्य साहित्यकी तुलनात्मक दृष्टिसे पूरा पूरा अध्ययन नहीं किया गया है । तीसरे, तिलोयपण्णत्ति हिन्दी अनुवादसहित प्रथम वार ही सम्पादित की जा रही है । हस्तलिखित प्रतियोंकी सामग्री संतोषजनक नहीं है तथा ग्रन्थकी किसी संस्कृतटीका, छाया अथवा टिप्पण आदिकी सहायता भी सम्पादकोंको उपलब्ध नहीं हुई । इस अभावके कारण पठनीय व प्रामाणिक पाठ तैयार करनेमें भी अपनी अधूरी सामग्रीके साथ वेचारे सम्पादकोंको कठिन युद्ध करना पड़ा है। अन्ततः, अच्छी प्रतियोंके अभावमें प्राकृत भाषा निश्छलबुद्धि सम्पादकके लिये नाना प्रकारकी कठिनाइयां उपस्थित करती है। पाठसंशोधनके आदर्शोंका पूर्ण ध्यान रखते हुए सम्पादक यह दावा नहीं करते कि तिलोयपण्णत्तिका जो पाठ इस संस्करणमें प्रस्तुत किया जा रहा है वह उक्त आदर्शोपर पूर्ण उतरता है । किन्तु वे यह कह सकते हैं कि प्राप्य सामग्रीकी सीमाओंके भीतर यह पूर्णतः प्रामाणिक । है पूर्णतः विवेचनात्मक पाठ तो तभी तयार किया जा सकता है जब समस्त उपलब्ध हस्तलिखित प्रतियोंकी तुलना की जाय, उनके पाठभेद व्यवस्थित किये जाँय, और उनका महत्त्व निश्चित किया जाय ।द और ब प्रतियां एक दूसरेसे यथेष्ट स्वतन्त्र हैं, अत एव उनके द्वारा लिमिकारकृत त्रुटियोंका निराकरण सरलतासे किया जा सका। वर्णविवेक आदि बातोंमें संस्करणमें एकनियमता रखनेका प्रयत्न किया गया है । संपादक प्राकृत अर्थात् मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाके अन्तर्गत प्रभेदोंकी ओर पूर्णतया सतर्क रहे हैं, और नियमतः पीछेके व्याकरणसम्बन्धी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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