Book Title: Thergatha
Author(s): Jagdish Kashyap
Publisher: Uttam Bhikkhu
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दुकनिपातो नत्थि कोचि भवो निच्चो संखारा वापि सस्सता, उप्पज्जन्ति च ते खन्धा चवन्ति अपरापरं ॥१२॥ एतं आदीनवं ञत्वा भवे न 'अम्हि अनत्थिको, निस्सटो सब्बकामेहि, पत्तो मे आसवक्खयो 'ति ।।१२२॥ इत्थं सुदं आयस्मा उत्तरो थेरो गाथायो अभासित्था'ति न इदं अनयेन जीवितं, नाहारो हदयस्स सन्तिका, आहारट्रितिको समस्सयो, इति दिस्वान चरामि एसनं ॥१२३।। पङको'ति हि नं अवेदयुं यायं वन्दनपूजना कुलेसु, सुखुमं सल्ळं दुरुब्बहं सक्कारो कापुरिसेन दुज्जहोति ॥१२४॥ इत्थं सुदं आयस्मा पिण्डोळभारद्वाजो थेरो गाथायो अभासित्था'ति । मक्कटो पञ्चद्वारायं कुटिकायं पसक्किय द्वारेन अनुपरियेति घट्टयन्तो मुहं मुहं ॥१२५॥ ति? मक्कट मा धावि, न हि ते तं यथा पुरे; निग्गहीतो 'सि पाय, नेतो दूरं गमिस्ससीति ॥१२६॥
वल्लियो थेरो तिण्णं मे ताळपत्तानं गङगातीरे कुटी कता, छवसित्तो व मे पत्तो , पंसुकूलञ्च चीवरं ॥१२७।। द्विन्नं अन्तरवस्सानं एका वाचा मे भासिता, ततिये अन्तरवस्सम्हि तमोखन्धो पदालितो'ति ॥१२८।।
गङ्गातीरियो भिक्खु अपि चे होति तेविज्जो मच्चुहायी अनासवो अप्पज्ञातोति नं वाला अवजानन्ति अजानता ॥१२९॥ यो च खो अन्नपानस्स लाभी होति'ध पुग्गलो, पाप धम्मो पि चे होति, सो नेसं होति सक्कतो'ति ॥१३०॥
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