Book Title: Thergatha
Author(s): Jagdish Kashyap
Publisher: Uttam Bhikkhu
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[ ५३
यसदत्तो थेरो
वक्कली थेरो ओलग्गेसामि ते चित्त आणिद्वारे व हत्थिनं, न तं पापे नियोजिस्सं कामजाल सरीरज ॥३५५॥ त्वं ओलग्गो न गच्छिसि द्वारविवरं गजो व अलभन्तो, न च चित्तकलि पुनप्पुनं पसहम्पापरतो चरिस्ससि ॥३५६॥ यथा कुञ्जरं अदन्तं नवग्गहमडकुसग्गहो बलवा आवत्तेति अकामं, एवं आवत्तयिस्सन्तं ॥३५७।। यथा वरहयदमकुसलो सारथि पवरो दमेति आजञ्ज़, एवं दमयिस्सन्तं पतिट्टितो पञ्चसु बलेसु ॥३५८।। सतिया तं निबन्धिस्सं, पयतत्तो वो दमेस्सामि; विरियधुरनिग्गहीतो न यितो दूरं गमिस्ससे चित्ता "ति ॥३५९।।
विजितसेनो थेरो उपारम्भचित्तो दुम्मेधो सुणाति जिनसासनं; आरका होति सद्धम्मा नभसो पथवी यथा ॥३६०॥ उपारम्भ चित्तो दुम्मेधो सुणाति जिनसासनं । परिहायति सद्धमा काळपक्खे व चन्दिमा ॥३६॥ उपारम्भ चित्तो दुम्मेधो सुणाति जिनसासनं परिसुस्सति सद्धमे मच्छो अप्पोदके यथा ॥३६२॥ उपारम्भचित्तो दुम्मेधो सुणाति जिनसासनं न विरूति सद्धा मे खेत्ते बीजं व पूतिकं ॥३६३।। यो च तुट्ठन चित्तेन सुणाति जिनसासनं खेपेत्वा आसवे सब्बे सच्छिकत्वा अकुप्पतं, पप्पुय्य पदमं सन्ति परिनिब्बाति अनासवो 'ति ॥३६४।।
यसदत्तो थेरो उपसम्पदा च मे लद्धा, विमुत्तो चम्हि अनासवो सो च मे भगवा दिट्ठो, विहारे च सहावसि ॥३६५॥ बहुदेव रत्ति भगवा अब्भोकासे 'तिनामयि विहारकुसलो सत्था विहारं पाविसी तदा ॥३६६॥ सन्थरित्वान संघाटि सेय्यं कप्पेसि गोतमो सीहो सेलगुहायं व पहीनभयभेरवो ॥३६७॥
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