Book Title: Thergatha
Author(s): Jagdish Kashyap
Publisher: Uttam Bhikkhu

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Page 91
________________ चुद्दसनिपातो यदा अहं पब्वजितो अगारस्मा अनगारियं नाभिजानामि संकप्पं अनरियं दोससंहितं ॥६४५।। इमे हान्तु वज्झन्तु दुक्खं पप्पोन्तु पाणिनो संकप्पं नाभिजानामि इमस्मि दीघमन्तरे ॥६४६।। मेत्तञ्च अभिजानामि अप्पमाणं सुभावितं अनुपुब्बं परिचितं यथा बद्धेन देसितं ॥६४७।। सब्बमित्तो सब्बसखो सब्बभूतानुकम्पको मेत्तं चिञ्च भावेमि अब्यापज्झरतो सदा ।।६४८।। असंहीरससंकुप्पं चित्तं आमोदयामहं ब्रह्मविहारं भावेमि अकापुरिससेवितं ॥६४९।। अवितक्क समापन्नो सम्मासम्बुद्धसावको यरियेन तुण्हिभावेन उपेतो होति तावदे ॥६५०॥ यथापि पब्बतो सेलो अचलो सुप्पतिट्टि तो, एवं मोहक्खया भिक्खु पब्बतोव न वेधति ।।६५१॥ अनङ्गणस्स पोसस्स निच्चं सुचिगवेसिनो वालग्गमत्तं पापस्स अब्भामत्तं व खायति ॥६५२।। नगरं यथा पच्चन्तं गत्तं सन्तरबाहिरं एवं गोपेथ अत्तानं खणे वे मा उपच्चगा ।।६५३॥ नाभिनन्दामि. . . . . . ।--६०६,६०७) ।।६५४-६५५।। परिचिण्णो. . . (=६०४,६०५) ॥६५६-६५७।। सम्पादेत्थ पमादेन, एसा मे अनुसासनी; हन्दाहं परिनिब्बिस्सं, विप्पमुत्तो'म्हि सब्बधीति ॥६५८।। रेवतो थेरो यथापि भद्दो आजञो धुरे युत्तो धुरस्सहो मथितो अतिभारेन संयुगं नातिवत्तति ॥६५९॥ ८० ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat www.umaragyanbhandar.com

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