Book Title: Thergatha
Author(s): Jagdish Kashyap
Publisher: Uttam Bhikkhu

View full book text
Previous | Next

Page 119
________________ चत्तालीसनिपातो न गणेन पुरक्खतो चरे, विमनो होति, समाधि दुल्लभो; नानाजनसंगहो दुक्खो इति दिस्वान गणं न रोचये ॥१०५१।। न कुलानि उपब्बजे मुनि, विमनो होति, समाधि दुल्लभो; सो उस्सुको रसानुगिद्धो अत्थं रिञ्चति यो सुखावहो ।।१०५२।। पङको 'ति हि जं अवेदयं यायं वन्दनपूजना कुलेसु, सुखुमं सल्लं दुरुब्बहं, सक्कारो कापुरिसेन दुज्जहो ॥१०५३।। सेनासनम्हा ओरुय्ह नगरं पिण्डाय पाविसि, भुज्जन्तं पुरिसं कुट्ठिं सक्कच्चं तं उपट्टहिं ॥१०५४॥ सो तं पक्केन हत्थेन आलोपं उपनामयि; आलोपं पक्खिपन्तस्स अङ्गुली पेत्थ छिज्जथ ॥१०५५।। कुड्डमूलञ्च निस्साय आलोपन्तं अभुञ्जिसं, भुञ्जमाने च भत्ते वा जेगुच्छं मे न विज्जति ॥१०५६।। उत्तिट्ठपिण्डो आहारो पूतिमत्तञ्च ओसधं सेनासनं रक्खमूलं पंसकूलञ्च चीवरं : यस्सेते अभिसम्भुत्वा स वे चातुदिस्सो नरो ॥१०५७॥ यत्थ एके विहन्ति अरुहन्तो सिलुच्चयं तस्स बुद्धस्स दायादो सम्पजानो पतिस्सतो इद्धिबलेनुपत्थद्धो कस्सपो अभिरूहति ॥१०५८॥ पिण्डपातपटिक्कन्तो सेलमारुयह कस्सपो झायति अनपादानो पहीनभयभेरवो ॥१०५९।। पिण्डपातपटिक्कन्तो सेलमारुयह कस्सपो झायति अनपादानो डयूहमानेसु निब्बुतो ॥१०६०।। पिण्डपातपटिक्कन्तो सेलमारुय्ह कस्सपो झायति अनपादानो कतकिच्चो अनासवो ।।१०६१।। १०८ ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138