Book Title: Thergatha
Author(s): Jagdish Kashyap
Publisher: Uttam Bhikkhu

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Page 94
________________ [ ८३ अज्ञाकोण्डञो थेरो अज्ञाकोएडओ थेरो मनुस्सभूतं सम्बुद्ध अत्तदन्तं समाहितं इरियमान ब्रह्मपथे चित्तस्सुपसमे रतं ॥६८९।। य मनुस्सा नमस्सन्ति सब्बधम्मान पारगुं देवापि तं नमस्सन्ति, इति मे अरहतो सुतं ॥६९०॥ सब्बसंयोजनातीतं वना निब्बनमागतं कामेहि निक्खम्मरतं मुत्तसेला व कञ्चनं ॥६९१॥ स वे अच्चन्त रुची नागो हिमवावो सिलुच्चय, सब्बेसं नागनामानं सच्चनामो अनुत्तरोः ॥६९२॥ नागं वो कित्तयिस्सामि, नहि आगुं करोति सो, सोरच्चं अविहिंसा च पादा नागस्स ते दुवे ॥६९३॥ सति च सम्पजज्ञञ्च चरणा नागस्स ते परे सद्धाहत्थो महानागो, उपेक्खा सेतदन्तवा ॥६९४॥ सति गीवा, सिरो पञ्जा, वीमंसा धम्मचिन्तना, धम्मकुच्छि समावासो, विवेको तस्स वालधि ॥६९५॥ सो झायी अस्सासरतो अज्झत्तं सुसमाहितो, गच्छ समाहितो नागो, ठितो नागो समाहितो ॥६९६॥ सयं समाहितो नागो, निसिन्नो पि समाहितो सब्बत्थ संवुतो नागो, एसा नागस्स सम्पदा ॥६९७॥ भुञ्जति अनवज्जानि, सावज्जानि न भुञ्जति. घासं अच्छादनं लद्धा सन्निधिं परिवज्जयं, ॥६९८॥ संयोजनं अणु थूल सब्बं छेत्वान बन्धनं, येन येनेव. गच्छति अनपेक्खोव गच्छति ॥६९९॥ यथापि उदके जातं पुण्डरीकं पवड्ढति, नोपलिप्पति तोयेन सुचिगन्धं मनोरमं ॥७००॥ तथैव च लोके जातो बुद्धो लोके विहरति, नोपलिप्पति लोकेन तोयेन पदुमं यथा ॥७०१।। महागिनि पज्जलितो अनाहारो पसम्मति अङ्गारेसु च सन्तेसु निब्बुतो'ति पवुच्चति ॥७०२॥ अत्थस्सायं विज्ञापनी उपमा विबेहि देसिता, विञिसन्ति महानागा नागं नागेन देसितं ॥७०३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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