Book Title: Thergatha
Author(s): Jagdish Kashyap
Publisher: Uttam Bhikkhu
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सुमनो थेरो
अतिमानो च ओमानो पहीना सुसमूहता
अस्मिमानो समुच्छिन्नो, सब्बे मानविधा हता'ति ॥४२८॥ जेन्तो पुरोहितपुत्त थेरो
यदा न वो पब्बजितो जातिया सत्तवस्सिको, इद्धिया अभिभोत्वान पन्नगिन्दं महिद्धिकं ॥४२९ ॥ उपज्झायस्स उदकं अनोतत्ता महासरा आहरामि ततो दिस्वा मं सत्था एतदब्रवी ॥४३०॥ सारिपुत्त इमं पस्स आगच्छन्तं कुमारकं उदकुम्भकमादाय अज्झत्तं सुसमाहितं ॥ ४३१ ॥ पासादिकेन वत्तेन कल्याणइरियापथो
सामणेरो नुरुद्धस्स इद्धिया च विसारदो ॥४३२।। आजानियेन आजञ्जो साधुना साधु कारितो विनीतो अनुरुद्धेन कतकिच्चेन सिक्खितो ॥४३३॥ सो पत्वा परमं सन्ति सच्छिकत्वा अकुप्पतं
सामणेरो स सुमनो मा मं जञाति इच्छतीति ॥४३४॥
सुमनो थेरो
कानने ॥४३६॥
वातरोगाभिनीतो त्वं विहरं कानने वने पविद्धगोचरे लूखे कथं भिक्खु करिस्ससि ।।४३५ ।। पीति सुखेन विपुलेन फरित्वान समुस्सयं लूखम्पि अभिसम्भोन्तो विहरिस्सामि भावेन्तो सत्त बोज्झडगे इन्द्रियानि बलानि च झानसोखुम्मसम्पन्नो विहरिस्सं अनासवो ॥४३७॥ विप्पमुत्तं किलेसेहि सुद्धचित्तं अनाविलं अभिण्हं पञ्चवेक्खन्तो विहरिस्सं अनासवो ॥४३८।। अज्झत्तीञ्च बहिद्धा च ये मे विज्जिंसु आसवा सब्बे असेसा उच्छिन्ना न च उप्पज्जरे पुन ॥ ४३९॥ पञ्चक्खन्धा परिता तिट्ठन्ति छिन्नमूलका, दुक्खक्खयो अनुप्पत्तो, नत्थि दानि
पुनब्भवो 'ति ॥४४०॥
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