Book Title: Thergatha
Author(s): Jagdish Kashyap
Publisher: Uttam Bhikkhu
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तिकनिपातो
अयोनिसुद्धि अन्वेसं अग्गि परिचरिं वने, सुद्धिमग्गमजानन्तो अकासि अमरं तपं ॥२१९॥ तं सुखेन सुखं लद्धं, पस्स धम्मसुधम्मतं; तिस्सो विज्जा अनुप्पत्ता, कतं बुद्धस्स सासनं ॥२२०॥ ब्रह्मबन्धु पुरे आसिं, इदानि खो'म्हि ब्राह्मणो, तेविज्जो न्हातको चम्हि सोत्तियो चम्हि वेदगु 'ति ।।२२१॥
अङ्गणिक भारद्वाज थेरो पञ्चाहाहं पब्बजितो सेखो अप्पत्तमानसो विहारं मे पविट्ठस्स चेतसो पणिधी अहु ॥२२२॥ नासिस्सं न पविस्सामि विहारतो न निक्खमे न पि पस्सं निपातेस्सं तण्हासल्ले अनूहते ॥२२३॥ तस्स मेवं विहरतो पस्स विरियपरक्कम, तिस्सो विज्जा अनुप्पत्ता, कतं बुद्धस्स सासनन्ति ॥२२४॥
पच्चमो थेरो यो पुब्बे करणीयानि पच्छा सो कातुमिच्छति, सुखा सो धंसते ठाना पच्छा च मनुतप्पति ॥२२५।। यहि कयिरा तहि वदे, यं न कयिरा न तं वदे, अकरोन्तं भासमानं परिजानन्ति पण्डिता ॥२२६॥ सुसुखं वत निब्बानं सम्मासम्बुद्धदेसितं असोकं विरजं खेमं यत्ध दुक्खं निरुज्झतीति ॥२२७॥
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