Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिंतामणिः
अपनेलिये प्रयोग किया है | श्री विद्यानन्द स्वामीको अपने इष्टदेव श्रीवर्धमान स्वामीका ही सहारा है । अथवा इस श्लोक द्वारा द्वितीय अर्थ भी अभिधेय होजाता है--- अहं घातिसंघातघातनं आध्याय प्रवक्ष्यामि " मैं घातियोंके समुदायको ध्वंस करनेवाले श्रीअर्हन्तदेवका ध्यान करके श्लोकवार्तिक ग्रन्थको " प्रवक्ष्यामि " आगमगम्य पदार्थोंको हेतुवाद और दृष्टान्तपूर्वक दार्शनिकोंक सन्मुख सिद्ध करूंगा। " कथंभूतं अर्हन्तं " कसे हैं श्री अर्हन्त देव " श्री वर्धमानं " " अवाप्योरुपसर्गयोः ॥ इस करके अव उपसर्ग के अकारका लोप होजाता है । अव समन्तात् ऋद्धं वहीसं नान के राजा बल, नारों ओरसे अनन्तानन्त पदार्थों के प्रकाश करनेकी शोभासे देदीप्यमान है केवलज्ञान जिनका " पुनः कथम्भूतं.' फिर कैसे श्रीअन्तदेव " विद्यास्पदं " " सम्पूर्णवाङ्मय द्वादशांगवाणीके आसद अर्थात् उत्पत्तिस्थान या अधिष्ठान हैं । " पुनः कथम्भूतं श्री अर्हन्तं " फिर कैसे हैं श्री अर्हन्तदेव ", तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वोपलशितधर्मप्रकृष्टतान्यतरावच्छिन्नस्तत्पदवाच्यार्थः " तत् अर्थात् सम्पूर्ण वस्तुओमें प्रधानशुद्धाला " व " उसका भाव हुआ, स्वाभाविकपरिणाम " अर्थ " सो है प्रयोजन जिसका ऐसा जो लोक अर्थात् तीर्थकर प्रकृतिके उदय कालमें होनेवाले पुण्यगुण ख्यापम रूप यश इसके लिये है, वृत्तिकानां ( आचरणानां ) समुदायो वार्तिकं, चारित्रका समुदाय जिनका । भावार्थ-अर्हन्तदेव यथाख्यात चारित्रकी उत्तरोत्तर शुद्ध परिणतियों के द्वारा तेरहवे गुणस्थानमें तीर्थकरत्यके कर्तव्योंसे उत्तम यशको प्राप्त करते हुए प्रसिद्ध परम शुद्धात्मा पदवीको प्राप्त करेंगे। स्वामीजीको तृतीय अर्थ भी अभिप्रेत है
" आध्याय प्रवक्ष्यामि " मैं के अर्थात् परमात्मास्वरूप सिद्धपरमेष्ठीका ध्यान करके " स्पष्ट वक्ता न बञ्चकः " की नीतिके अनुसार सिंह वृत्तिसे सर्व सन्मुख ( सरे बाजार ) प्रतिबादियोंको शास्त्रार्थ करनेका दुंदुभिवादन करता हुआ सप्तभंगोवाणीका निरूपण करूंगा " कथम्भूतं के " कैसे है सिद्धपरपेष्ठी " श्रीवर्धमानं " श्रिया वातीति श्रीवं श्री, ब, ऋद्ध, मान अनन्तानन्त संख्यानेन ऋद्धं प्रवर्द्ध मान परिमाणं यस्य-आत्मलब्धिको सुरमित करनेवाला प्रकृष्ट है परिमाण जिनका। भावार्थ---अनेक भव्य जीवोंकी स्वाभाविक परिणतिरूप स्वसम्पत्तिको स्वकीयशुद्धिकी सत्तामात्रसे सुवासित करनेवाले अनंतानंत सिद्ध भगवान् सिद्धक्षेत्रमें शोभायमान हैं । पुनः कथम्भूतं " के " घातिसंघातपातनम् फिर कैसे हैं सिद्ध भगवान् ?
मोहो खाइयसम्म केवलणाणं च केवलालोय । हणदि हु आवरणादुर्ग अणतविरियं हणेइ विग्धन्तु ॥ १ ॥ सुहमं च णाणकम्न हणेइ आऊ हणे अवगहणं ! अगुरुलहुगं च गोद अब्बावाहं हणेइ धेयणियं ॥ २ ॥