Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 16
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *3 नावधिज्ञानवृत्कर्मक्षयोपशमहेतुता। व्यवच्छेद्या प्रसज्येताप्रतियोगित्वनिर्णयात् // 5 // बाह्यौ हि प्रत्ययावत्राख्यातौ भवगुणौ तयोः। प्रतियोगित्वमित्येकनियमादन्यविच्छिदे // 6 // यथैव हि चैत्रो धनुर्द्धर एवेत्यत्रायोगव्यवच्छेदेऽप्यधानुर्द्धर्यस्य व्यवच्छेदो नापाण्डित्यादेस्तस्य तदप्रतियोगित्वात्। किं चैत्रो धनुर्द्धरः किं वायमधनुर्द्धर इति आशंकायां धानुर्द्धर्येतरयोरेव प्रतियोगित्वाद्धानुर्द्धर्यनियतेनाधानुर्द्धर्यं व्यवच्छिद्यते। तथा किमवधिर्भवप्रत्यय किं वा गुणप्रत्यय इति बहिरंगकारणयोर्भवगुणयोः परस्परं प्रतियोगिनोः शंकायामेकतरस्य भवस्य कारणत्वेन नियमे गुणकारणत्वं व्यवच्छिद्यते / न अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम को कारणता का व्यवच्छेद नहीं हो सकता है, क्योंकि उन दो प्रकार वाले अवधिज्ञानों के बहिरंग कारण के प्रकरण में भव और गुण ये दो कहे गये हैं। अतः भव और गुण परस्पर एक दूसरे के प्रतियोगी हैं। इस कारण शेषं अन्य का व्यवच्छेद करने के लिए एक का नियम कर दिया जाता है अर्थात् जिस देव या नारकी के भव को कारण मानकर अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है, उसमें संयम आदि गुण कारण नहीं हैं किन्तु अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम कारण अवश्य है। गुण तो बहिरंगकारण है और क्षयोपशम अन्तरंग कारण है। अतः भव के प्रतियोगी बहिरंगकारण गुण का देव नारकियों के अवधिज्ञान में निषेध है। किन्तु अप्रतियोगी क्षयोपशम का निषेध नहीं किया गया है॥५-६॥ एवकार तीन प्रकार का होता है। अयोग व्यवच्छेद, अन्ययोगव्यवच्छेद तथा अत्यन्तायोगव्यवच्छेद / इस प्रकरण में यह कहना है कि चैत्र विद्यार्थी धनुषधारी ही है। इस प्रयोग में जिस प्रकार अयोग का व्यवच्छेद होने पर भी चैत्र के अधनुर्धारीपने का ही प्रतिषेध हो जाता है, किन्तु चैत्र के अपण्डितपन आदि का व्यवच्छेद नहीं होता है क्योंकि उस धनुषधारी चैत्र के वे अपण्डितपन आदि प्रतियोगी नहीं हैं अर्थात् अप्रतियोगी है। यहाँ प्रतियोगी तो धनुषधारी रहितपना ही है। चैत्र क्या धनुषधारी है? अथवा क्या यह चैत्र धनुषधारी नहीं है? इस प्रकार आशंका होने पर धनुषधारीपन और धनुषरहितपन, इन दोनों का ही प्रतियोगीपन नियत हो रहा है। - जब चैत्र धनुषधारी है, इस प्रकार नियम कर दिया जाता है, तो उस नियम से चैत्र के धनुष धारण नहीं करने का व्यवच्छेद हो जाता है। उसी प्रकार यहाँ अवधिज्ञान में समझना चाहिए। अवधिज्ञान क्या भव को कारण मानकर उत्पन्न होता है? अथवा गुण का निमित्तकारण पाकर उत्पन्न होता है? इस प्रकार बहिरंग कारण परस्पर एक दूसरे के प्रतियोगी भव और गुण की शंका होने पर पुनः दोनों में से एक भव का कारणपन करके नियम कर देने पर देव नारकों के अवधिज्ञान में गुण को कारण मानकर उत्पन्न होना व्यवच्छिन्न कर दिया गया है किन्तु फिर अवधिज्ञानावरण के विशेष क्षयोपशमरूप कारण का निषेध नहीं किया गया है क्योंकि क्षेत्र, काल, आत्मा आदि के समान वह क्षयोपशम तो उस भवस्वरूप बहिरंग कारण का प्रतियोगी नहीं है। भव का नियम कर देने पर यदि गुण के समान उस क्षयोपशम का भी एवकार द्वारा व्यवच्छेद कर दिया जायेगा तब तो भव को साधारणकारणपना हो जाने से सम्पूर्ण भवधारी प्राणियों के साधारणरूप से अवधिज्ञान होने का प्रसंग आएगा; किन्तु सब जीवों का साधारण अवधिज्ञानपना इष्ट नहीं है अर्थात् -

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