Book Title: Tattvartha Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 831
________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८ स.५१ अवधिज्ञानविषयनिरूपणम् ८१५ ओहिदसणिस्स सन्धरूवि दवेसु न पुण सव्व पज्जवेसु' इति अवधिदर्शनम्-अवधिदर्शनिनः सर्वरूपि द्रव्येषु न पुनः सर्व पर्यायेषु, इति एवं नन्दिसूत्रे १६ सूत्रो चोक्तम्-'तं समासो चउम्यिहं पण्णत्तं, तं जहां-दव्यभीखेत्तमो कालो भावमओ, तस्थ दधो ओहिनाणी जहाणेणं अर्गताई रूविदव्वाइं जाणइ-पासइ उक्कोसेणं सव्वाइं रूविदाई जाणइ पासइ खेत्तओणं ओहिनाणी जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिज्जइमागं जाणइ पासइ उक्कोसेणं असंखिज्जाई अलोग लोगपमाणमित्ताई खंडाई जाणइ-पास काल भोणं ओहिनाणी जहण्णेणं ओवलिधाए असंखि ज्जाई भागं जाणइ-पासइ, उक्कोसेणं असंखिज्जाओ उस्सप्पिणीमो ओसप्पिणीभो अईयं अणागईयं च कालं जाणइ पारूह भावओणं ओहिनाणी जहण्णणं अर्णते भावे जाणइ पासइ उक्कोसेणं वि अणंत भावे जाण पासइ, सव्वभावाणं अणंतभागं जाणइ पासइ-इति तत् समासतश्चतुर्विध प्रज्ञप्तम् तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः । तत्र द्रव्यतोऽवधिज्ञानीजघन्येनाऽनन्तानि रूपि द्रव्याणि जानाति पश्यति, उत्कृष्टेन सर्वाणि रूपि द्रव्याणि जानाति पश्यति, क्षेत्रतः खलु अवधिज्ञानी जघन्येनांगुलस्यासंख्येय____ अनुयोगद्वार सूत्र के १४४ वें सूत्र में कहा है-'अवधिदर्शन वाले का समस्त रूपी द्रव्यों में व्यापार होता है, मगर उनके समस्त पर्यायों में नहीं। नन्दिसूत्र के १६ वें सूत्र में भी कहा है-अवधिज्ञान संक्षेप से चार प्रकार का है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य की अपेक्षा अवधिज्ञानी जघन्य अनन्त रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है, उत्कृष्ट समस्त रूपी द्रब्घों को जानता और देखता है। क्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञानी जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को जानता-देखता અનુયોગદ્વાર સૂત્રના ૧૪૪માં સૂત્રમાં કહ્યું છે “અવધિદર્શન અવધિદર્શન વાળાના સમસ્ત રૂપી દ્રવ્યોમાં વ્યાપાર હોય છે પરંતુ તેમના સમસ્ત પર્યાયોમાં નહીં” નંદીસૂત્રમાં ૧૬માં સૂત્રમાં પણ કહ્યું કે અવધિજ્ઞાન સંક્ષેપમી ચાર પ્રકા૨નું છે દ્રવ્યથી ક્ષેત્રથી કાલથી અને ભાવથી. દ્રવ્યની અપેક્ષા અવધિજ્ઞાની જઘન્ય અનન્ત રૂપી દ્રવ્યોને જાણે જુએ છે ઉત્કૃષ્ટ સમસ્ત રૂપી દ્રવ્યોને જાણે જુએ છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષા અવધિજ્ઞાની જઘન્ય આંગળના અસંખ્યાતમાં ભાગને જાણે જુએ છે, ઉક્ટ અલકમાં લોકપ્રમાણ અસંખ્યાત ખંડેને જાણે જુએ છે. કાલથી અવધિજ્ઞાન જઘન્ય આવલિકાની સંખ્યામાં ભાગને જાણે જુએ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્રઃ ૨

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