Book Title: Tattvartha Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 843
________________ दीपिका-नियुक्ति टीका अ.८२.५४ केवलज्ञानलक्षणनिरूपणम् ८२७ स्तिकायपुद्गलास्तिकायजीवास्तिकायकारूपाणां, सर्वेषां पर्यवानाचावभासि अवमासकं प्रकाशकं विषयतयाऽवलम्मि ज्ञानं केवलज्ञान मुच्यते । तथाचसकलद्रव्यसकळपर्यायविषयकं ज्ञानं केवलज्ञानं व्यपदिश्यते । एवश्व-धर्मा. स्तिकायादि सकलद्रव्यविषयकम्-उत्पादादि सकलपर्यायविषयकश्च केवल ज्ञान भवति। तत्र-धर्माधर्माकाशरूपन्यत्रयाणाम् परत उत्पाद-व्ययौ भवतः, पुद्गलानां-जीवानां कालानाश्च द्रव्य त्रयाणां स्वतः-परतश्चौत्पाद-व्ययौ भवतः। यथा-पुद्गलस्य शुक्लस्वादिना व्ययो भवन् स नीलत्वादिना समुपजायमानोऽपि पुद्गलत्वेनाऽवतिष्ठते । एवं जीवोऽपि देवत्वादिनोपजायमानो मन व्यत्वादिना व्येति जीवत्वेनच सदाऽवतिष्ठते । एवं कालोऽपि आवलिकादित्वेन गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल, इन सभी द्रव्यों को तथा समस्त पर्यायों को जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है। इस प्रकार सकल द्रब्य और सकल पर्याय विषयक केवलज्ञान कहा जाता है। इस तरह जो धर्मास्तिकाय आदि मष द्रव्यों को और उत्पाद आदि सब पर्यायों को जानता है वह केवलज्ञान होता है। धर्म, अधर्म और आकाश, इन तीन द्रव्यों का उत्पाद और व्यय परतः होता है तथा पुद्गल जीव और काल, इन तीन द्रव्यों का उत्पाद और व्यय स्वतः और परतः होता है। पुद्गल द्रव्य का शुक्ल पर्याय से व्यय (विनाश) होता है, नील पर्याय के रूप में उत्पाद होता है, फिर भी वह पुद्गल रूप से ध्रुव रहता है, इसी प्रकार जीव का भी देव पर्याय से उत्पाद, मनुष्य पर्याय से विनाश और जीव रूप से प्रोग्य होता है-अर्थात् जीवत्व दोनों पर्यायों में कायम रहता है। इसी प्रकार काल भी आवलिका आदि रूप से नष्ट होता है, समय आदि रूप से કાય અને કાલ, આ બધાં દ્રોને તથા બધાં પર્યાયોને જાણનારા જ્ઞાન કેવળ જ્ઞાન કહેવાય છે. આ રીતે સકળ દ્રવ્ય અને સકળ પર્યાય વિષયક કેવળજ્ઞાન કહેવામાં આવે છે. આ રીતે જે ધર્માસ્તિકાય આદિ બધા ને તેમજ ઉત્પાદ આદિ બધાં પર્યાયોને જાણે છે તે કેવળજ્ઞાન કહેવાય છે. ધર્મ, અધર્મ, અને આકાશ આ ત્રણ દ્રવ્યના ઉત્પાદ અને વ્યય પરતઃ હોય છે. પુદ્ગલપને શુકલ પર્યાયથી વ્યય (વિનાશ) થાય છે, નીલપર્યાયના રૂપ માં ઉત્પાદ થાય છે, તે પણ તે પુદ્ગલ રૂપથી ધ્રુવ રહે છે એજ રીતે જીવ ને પણ દેવ પર્યાયથી ઉત્પાદ, મનુષ્ય પર્યાયથી વિનાશ અને જીવ રૂપથી ૌવ્ય થાય છે- અર્થાત્ જીવ બંને પર્યામાં કાયમ રહે છે એવી જ રીતે श्री तत्वार्थ सूत्र : २

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