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(७ ) जानकारी उपलब्ध नहीं हुई । उनके समय के विषय में भी मत- भेद है। लम्बी चर्चाओं के बाद विद्वानों ने विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी का समय निश्चित किया है।
गृन्थ परिचय तत्त्वार्थ-सूत्र : अन्तरंग -बाह्य परिवेश तत्त्वार्थ सूत्र जैन -तत्त्वज्ञान का विशिष्ट संग्राहक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र-रत्नत्रयी का युक्तिपूर्ण निरूपण, छह द्रव्य और पाँच अस्तिकायों का विवेचन, भूगोल-खगोल सम्बधी जैन मान्यताएँ, ज्ञान और ज्ञेय की समुचित व्यवस्था तथा नवतत्वों का सर्वांगीण विवेचन हुआ है। जैसे कोई कुशल कलाकार मुक्ता-मणियों को क्रमश: सजाकर अद्भुत हार बना देता है, वैसी ही संग्रह-कुशलता का दर्शन इस कृति में होता है। आपकी इस अद्भुत संग्रह-कुशलता से ही प्रभावित होकर आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है
उपउमास्वाति संग्रहीतार: (जैन तत्त्वों के संग्राहक आचार्यों में उमास्वाति प्रथम (उत्कृष्ट और अनुपम) हैं।)
वास्तविक स्थिति यह है कि तत्त्वार्थ सूत्र में जैन तत्त्वज्ञान का कोई भी विषय छोड़ा नहीं गया है। लगभग सभी विषयों का सूत्र रूप में समावेश इस ग्रन्थ में बडी कुशलतापूर्वक कर दिया गया है।
इसके साथ ही इसकी रचना शैली भी विशिष्ट और सुबोध है। तत्त्वार्थसूत्र की आन्तरिक विशेषताएं
कोई भी रचना लोकप्रिय तभी होती है, जब उसमें कुछ ऐसी आन्तरिक विशिष्टताएँ हों जो सर्वजनमान्य, विद्वद् समाज और सामान्य पाठकों के लिए ज्ञानवर्द्धक एंव सुबोध तथा सार्वकालीन तथ्यों से परिपूर्ण हों।
तत्त्वार्थ सूत्र में ऐसी अनेक विशेषताएँ हैं । इसमें से कुछ का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है -
(१) रचना शैली - यह प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रमुख विशेषता है। यह ग्रन्थ सूत्र शैली में लिखा गया है। प्राचीन आचार्यों ने सूत्रों की अनेक विशेषताएँ बताई हैं, उनमें से प्रमुख विशेषताएँ हैं-सूत्र छोटे हों, व्याकरण-दोषों से रहित हों, उनका अर्थ स्पष्ट हो, परस्पर विसंवादिता न हो।
इस कसौटी पर कसने से प्रस्तुत ग्रन्थ के सूत्र के सूत्र पूर्णतया खरे उतरते हैं, इनमें कहीं भी वैषम्य, विसंवादिता और अस्पष्टता नहीं है। प्रत्येक सूत्र स्वयं में स्वतंत्र और पूर्ण होते हुए भी आगे-पीछे के सूत्रों से सम्बन्धित है। - दूसरी बात इसमें न तार्किक शैली अपनाई गई है और खंडन मंडन की ही प्रवृत्ती है अपितु सरल, सुबोध भाषा मे तत्त्वों का प्रमाण पुरस्सर निरूपण कर दिया है।
(२) विषय-वर्णन-प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय वीतराग अर्हन्तदेव द्वारा प्रणीत मोक्षमार्ग का निरूपण करना है। यह इसके प्रथम सूत्र से ही ज्ञात हो जाता है। इससे यह बात भी उजागर होती है कि जैसे 'कला' कला के लिए नही; जीवन के लिए है, वैसे ही 'ज्ञान' ज्ञान के लिए नहीं, वह जीवन कल्याण अर्थात् जीवन का चरम लक्ष्य-मोक्ष प्राप्त करने के लिए है।
जैन दर्शन की विशेषता है कि इसमें विचार और आचार को समान महत्त्व दिया गया है। एक के अभाव में दूसरी कार्यकारी नहीं होता। दोनों के समन्वय से ही कार्य अथवा
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