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विकारों से क्यों परास्त हो जाता है? परन्तु हम जितनी चिन्ता शरीर की करते हैं, उतनी जो देखने वाली, जानने वाली, समझने वाली, उसको चलाने वाली आत्मा की प्रायः नहीं करते।
आरोग्य एवं निरोगता में अन्तर निरोग का मतलब शरीर रोग उत्पन्न ही न हो जबकि आरोग्य का मतलब शरीर में रोगों की उपस्थिति होते हुए भी हमें इनकी पीड़ा और दुष्प्रभावों का अनुभव न हो। आज हमारा सारा प्रयास प्रायः आरोग्य रहने तक ही सीमित हो गया है। आज हम मात्र शारीरिक रोगों को ही रोग मान रहे हैं। चेतनाशील प्राणी को ही रोग की अनुभूति होती है। मृत्यु के पश्चात् निर्जीव शरीर अथवा जड़ या अचेतन अवस्था में रोग की अनुभूति नहीं होती। जीव, आत्मा का पर्यायवाची शब्द हैं। आत्मा की अशुद्ध अवस्था अथवा विभाव दशा ही रोंग का प्रतीक है। आत्मा के बिना न तो शरीर का अस्तित्व होता है, न मन व वाणी ही चेतना की अभिव्यक्ति के माध्यम होते हैं। अतः जब तक आत्मा अपनी शुद्धावस्था को प्राप्त नहीं होगी, हम किसी न किसी रोग से अवश्य पीड़ित होंगे अर्थात् निरोग नहीं बन सकते। ...
आत्मिक रोग शारीरिक और मानसिक रोगों से ज्यादा खतरनाक हैं, जो हमें जन्म-मरण एवं विभिन्न योनियों में भटकाने वाले हैं। शारीरिक रूप से भी निरोग. बनाना प्रायः असम्भव लगता है। रोग चाहे शारीरिक हो, चाहे मानसिक अथवा आत्मिक, उसका प्रभाव तो शरीर पर ही होगा। अभिव्यक्ति तो शरीर के.माध्येम से ही होगी, क्योंकि आत्मा तो अरूपी है और मन को भी हम अपने चर्म चक्षुओं द्वारा देखने (मानसिक), व्याधि (शारीरिक), उपाधि (कर्म-जन्य) के रूप में ही प्रकट होते . हैं। अतः आधि, व्याधि और उपाधि का शमन करने से ही समाधि, स्वस्थता एवं परम । शान्ति अर्थात् निरोग अवस्था की प्राप्ति हो सकती है। ... शारीरिक दृष्टि से निरोग रहने के लिए आवश्यक है कि यथा-सम्भव प्राकृतिक नियमों का पालन किया जाए। शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, शुद्ध सात्विक एवं पौष्टिक आहार उचित मात्रा में आवश्यकतानुसार पाचन के नियमानुसार उचित समय ग्रहण किया जाए। नियमित धूप का सेवन किया जाए तथा व्यायाम, आराम, . निद्रा का ध्यान रखा जाए। नियमित स्वाध्याय, ध्यान, मौन, उपवास, इन्द्रिय संयम, प्राणायाम किया जाए तथा तनाव के कारणों से यथासम्भव बचा जाए। शारीरिक क्षमता के अनुरूप ही श्रम किया जाए तथा मल और पेशाब आदि शरीर के विकारों का विसर्जन करने वाली प्रक्रियाओं को न रोका जाएं इन नियमों की उपेक्ष कर अपने आपको निरोग रखने की कल्पना आग लगाकर ठण्डक प्राप्त करने के समान होगी। जैसे "फूटे घड़े को सात समुद्रों का पानी भी भरा हुआ नहीं रख सकता ठीक इसी प्रकार रोग के कारणों से बच कर अथवा दूर किए बिना कोई भी चिकित्सा पद्धति मानव शरीर को भी पूर्णरूपेण निरोग नहीं रख सकती।
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