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का मूल कारण है। अतः अहिंसक व्यक्ति को ऐसे एक इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों के साथ करूणा, दया का व्यवहार करना चाहिए। .
जिस प्रकार मूर्च्छित व्यक्ति की बाहय चेतनां सुप्त होती है, परन्तु अन्तरंग . चेतना, अनुभूति, लुप्त नहीं होती। कोई मनुष्य जन्म से अन्धा, मूक, बधिर और . हाथ-पैरो.से विकलांग हो और यदि कोई व्यक्ति उसको कष्ट दें तो भी वह उस . पीड़ा को अभिव्यक्त नहीं कर सकता और न दुःखी होकर चल सकता है अथवा अन्य चेष्टा ही कर सकता है। तब क्या ऐसा मान लिया जावे कि उसमें जीव नहीं हैं। जैसे वह व्यक्ति वाणी, चक्षु और गति के अभाव में पीड़ा का अनुभव करता है, वैसे ही पृथ्वी, जल, वायु और वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों में भी व्यक्त चेतना का अभाव होने से प्राणों का स्पन्दन नहीं होता है, किन्तु अनुभव चेतना विद्यमान होती . है। अंत: उन्हें भी कष्ट की अनुभूति होती है। एकेन्द्रिय जीवो में चेतना मूर्च्छित रहती । है, परन्तु वे अन्तरंग चेतना से शून्य नहीं होते। वैदिक परम्परा में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में देवत्व का वास माना गया है। भवन निर्माण अथवा प्रवेश के समय भूमि पूजन, हवन और विवाह शादी के प्रसंगों पर अग्नि की साक्षी, सूर्य नमस्कार, हथेली में पानी लेकर संकल्प लेने की परम्परा तथा पीपल, नीम, तुलसी आदि के पूजन के पीछे सम्भवतया यही लक्ष्य रहा हुआ है। परन्तु पृथ्वी; पानी, वायु, अग्नि और वनस्पति आदि में चेतना का ज्ञान न होने से अहिंसक कहलाने वाले भी इनका दुरूपयोग, अपव्यय करते तनिक भी संकोच नहीं करते।
क्या अहिंसक जीवन जीना सम्भव है ?
__ आत्मा को अशुभ कर्मों से आवृत्त करने में सबसे ज्यादा कारण हिंसा, .. क्रूरता, निर्दयता का आचरण है। क्या वर्तमान परिस्थितियों में अहिंसा का पालन सम्भव है? जहाँ जीवन है, वहाँ हिंसा होना स्वाभाविक है। अल्पतम, अतिआवश्यक, अपरिहार्य, लाचारी से होने वाली हिंसा के अलावा अनावश्यक, बिना किसी प्रयोजन होने वाली हिंसा करने, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से करवाने तथा अज्ञान एवं अविवेकमय हिंसक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने अथवा उनकी अनुमोदना करने से अपने आपको कैसे बचाया जा सके, यही चिन्तन का प्रश्न है?
दुनिया में कोई भी जीव मरना नहीं चाहता। भले ही उसे न चाहते हुए भी मरना क्यों न पड़े। यह सनातन सिद्धान्त है, परन्तु आज का स्वार्थी मानव अपने स्वास्थ्य के लिए अन्य चेतनाशील प्राणियों के साथ अमानवीय क्रूरता, निर्दयता, हिंसा का व्यवहारं करते तनिक भी संकोच नहीं करता। 'जियो और जीने दो' पर आधारित जीवनचर्या ही मानवता का प्रतीक है। अपने स्वार्थ के लिए अन्य जीवों को कष्ट
पहुँचाना पाशविकता का लक्षण हैं। हमें तो पिन अथवा सूई की चुभन भी सहन न . . . हो, परन्तु अज्ञानवश धर्म के नाम पर स्वाद, मनोरंजन, व्यवसाय, शिक्षा, दवाओं के
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