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चिन्तन करना चाहिए। हमारे मानने अथवा न मानने से सनातन सत्य या असत्य नहीं हो जाता। करोड़ों व्यक्तियों के कहने से दो और दो पाँच नहीं हो जाते। दो और दो तो चार ही होते हैं। पारस को पत्थर कहने से वह पत्थर नहीं हो जाता और ... पत्थर को पारस मानने से वह पारस नहीं हो जाता।
कहने का अभिप्राय यही है कि राग और द्वेष दोनों कर्म बन्धन का कारण होने से आत्मा को मलिन बनाते हैं। द्वेष की मलिनता का तो हमें पता चल जाता है, परन्तु राग की मलिनता का नहीं। वास्तव में राग और द्वेष संसारी आत्मा रूपी कारखाने के विषैले द्रव्य हैं, जो हमारी आत्मा को गन्दा करते हैं। आधुनिक चिकित्सकों के पास शरीर में उत्पन्न रोगों के परीक्षण हेतु तो विभिन्न प्रकार के यंत्र होते हैं, परन्तु आज तक ऐसा यंत्र नहीं बना पाए, जो आत्म विकारों को माप सके तथा आवश्यकता होने पर उन्हें दूर भी कर सके। रक्त को शुद्ध करने का . तरीका तो उन्होंने ढूँढ लिया, परन्तु आत्मा को स्वच्छ, निर्मल, पवित्र, शुद्ध बनाने हेतु विशेष प्रयास नहीं किया । आधुनिक चिकित्सक बाहय कारणों से उत्पन्न शरीर : में रोग के कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए तो प्रयत्नशील रहते हैं, परन्तु मन में उत्पन्न आत्मा को कलुषित करने वाली क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, राग, द्वेष, असत्य, अनैतिकता, घ्रणा, प्रमाद, चिन्ता, भय, तनाव, असंयम आदि अशुभ प्रवृत्तियों के विकारों की गन्दगी से उत्पन्न रोग के कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए उनका ध्यान नहीं जाता। ये ही धुन या कीट हैं, जो रोगोत्पति का कारण बन हमारे दिल, दिमाग और देह को दुर्बल बनाते हैं।
स्थायी स्वास्थ्य हेतु अन्तर्दृष्टि आवश्यक
आज का मानव बहिर्गामी बना हुआ है। उसने अपनी अन्तर्दृष्टि का विकास नहीं किया । प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर अन्तर्दष्टि के विकास की अनन्त क्षमता है। वह ... सूक्ष्म बात को जान और समझ सकता है। शरीर का जो भाग कार्य में नहीं लिया जाता है वह शक्तिहीन एवं निष्क्रिय हो जाता है। बाहय दृष्टि की भी उपयोगिता है। महत्त्व है, परन्तु उसको ही सब कुछ मान कर उसमें अटक जाना, भटक जाना बुद्धिमत्ता नहीं । अन्तरदृष्टि का विकास करना भी आवश्यक है। केवल स्थूल बाह्य , दृष्टि से जीवन तो चल जाता है, परन्तु अच्छा जीवन नहीं चल सकता। अपनी क्षमताओं का पूर्ण उपयोग नहीं हो सकता। इच्छित लक्ष्य को पूर्णरूपेण प्राप्त नहीं किया जा सकता। प्रत्येक जीव शान्ति, सुखं, स्वस्थता, स्वाधीनता और जीना चाहता है जिसकी सरलतापूर्वक प्राप्ति सम्भव नहीं हो सकती। - यदि हमें स्वावलम्बी बन स्थायी रूप से स्वस्थता प्राप्त करनी है तो अपनी . क्षमताओं का चिन्तन करना होगा, उन्हें पहचानना और सदुपयोग करना होगा। मैं चेतन्यमय हूँ, आनन्दमय हूँ, अनन्त शक्ति का स्रोत मुझमें है। रोग का कारण मैं स्वयं
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