Book Title: Swadeshi Chikitsa Aapka Swasthya Aapke Hath
Author(s): Chanchalmal Choradiya
Publisher: Swaraj Prakashan Samuh

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Page 75
________________ चिन्तन मनन करना आदि प्राण ऊर्जा का दुरूपयोग है। ध्यान और कयोत्सर्ग प्राण ऊर्जा का अपव्यय अथवा दुरूपयोग रोकने के सशक्त उपाय होने से प्रभावशाली उपचार भी है। प्रवृत्ति मात्र से प्राण खर्च होते हैं, अतः यथासम्भव शुभ में ही प्रवृत्ति होनी चाहिए। अतः प्रवृत्ति से निवृत्ति अर्थात् योग से अयोग अवस्था की प्राप्ति ही स्वास्थ्य का राजमार्ग है। जितना ज्यादा कर्मों का बन्ध होगा उतना स्वास्थ्य खराब होगा प्राण ऊर्जा के असन्तुलन का प्रभाव प्राण ऊर्जा के असन्तुलन से ही आवेग आते हैं। क्रोध, भय, चिन्ता, दुःख, निराशा, अधीरता, तनाव, क्रूरता, मायावृत्ति तृष्णा आदि भावों का उद्भव उस ही का प्रमाण होता है। ऐसे भावों से हमारी अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ प्रभावित होती है, जो शारीरिक रोगों का मुख्य कारण होती हैं। क्रोध में व्यक्ति अपना भान भूल जाता है। अधिक भय से कभी-कभी अचेतनता आ सकती है। ज्यादा चिन्ता से भूख मर जाती है। आवेग का हृदय और तनाव का मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव पड़ता है। शरीर के अवयवों की रासायनिक प्रक्रियाएँ बदल जाती है। ऐसी परिस्थिति में यदि असन्तुलित प्राण ऊर्जा को सामायिक (समभाव) एवं स्वाध्याय (सम्यक चिन्तन) द्वारा सन्तुलित कर दिया जावे तो उपचार अधिक प्रभावशाली हो जाता है। भौतिक विज्ञान चैतन्य अथवा प्राण ऊर्जा का निर्माण नहीं कर सकता। मात्र प्राण ऊर्जा के वितरण, संचालन, नियंत्रण और निर्माण में संहयोग ही दिला सकता है। अतः भौतिक सिद्धान्तों पर आधारित कोई भी उपचार शरीर में जड़ तत्वों की खराबी को ठीक करने तक ही सीमित होता है। इसी कारण शरीर के लिए अति आवश्यक रक्त, माँस, मज्जा, अस्थि, वीर्य जैसे अवयवों का निर्माण आज की विकसित भौतिक प्रयोगशालाओं में भी सम्भव न हो सका, जो मनुष्य का शरीर स्वयं बनाता है, फिर भौतिक वैज्ञानिकों को व्यर्थ घमण्ड किस बात का? हृदय, फेंफड़े, गुर्दे, लीवर, तिल्ली, मस्तिष्क, जैसे चेतना द्वारा स्वचालित, स्वनियंत्रित अंगों तथा कान, नाक, आँख, मुँह जैसी इन्द्रियों का निर्माण क्यों नहीं सम्भव हो सका? स्वास्थ्य विज्ञान का सम्बन्ध मात्र जड़ शरीर से ही नहीं है, उसके साथ चेतना भी है। जो स्वास्थ्य विज्ञान चेतना की उपेक्षा कर जड़ तक ही अपने आपको सीमित रखे, उसको पूर्ण मानना, उसके सिद्धान्तों को अत्यधिक महत्त्व देना हमारे अज्ञानं और अविवेक का प्रतीक है तथा मालिक से ज्यादा नौकर को महत्त्व देने के समान अबुद्धिमत्तापूर्ण है। शरीर के जिस-जिस भाग में चेतना का प्रवाह होता है, वे ही अंग, उपांग, अवयव, इन्द्रियाँ, मन, मस्तिष्क आदि क्रियाशील रहते हैं। जहाँ-जहाँ चेतना मन्द ... हो जाती है, उसी अनुपात में असक्रिय अथवा निष्क्रिय हो जाते हैं। स्वास्थ्य के लिए 74

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