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को चलाया जा सकता है उसी प्रकार प्राण ऊर्जा का भी शरीर की विभिन्न प्रक्रियाओं एवं अंगों की आवश्यकतानुसार रूपान्तरण हो सकता है। यदि किसी कारणवश शरीर के किसी भाग में उसकी क्रिया हेतु आवश्यक ऊर्जा नहीं मिलती है, तब सम्बन्धित भाग/अंग/उपांग/अवयव रोगग्रस्त होने लगता है। परिणामस्वरूप उससे सम्बन्धि
त सारी गतिविधियाँ प्रभावित होने लगती हैं। लम्बे समय तक ऐसी स्थिति बने रहने • से रोग संक्रामक और असाध्य भी हो सकता है।
. जिस प्रकार बिजली के उपकरणों में जब क्षमता से अधिक विद्युत भार (वोल्टेज) पर बिजली प्रवाहित होती है तो उस उपकरण के खराब होने की सम्भावना रहती है और यदि कम वोल्टेज पर बिजली प्रवाहित हो तो उपकरण पूर्ण क्षमता से कार्य नहीं करते। ठीक उसी प्रकार शरीर के किसी भाग में प्राण ऊर्जा का रूपान्तरण आवश्यकता से कम अथवा अधिक हो तो सम्बन्धित अंग/उपाग/ अवयव रोगग्रस्त हो जाते हैं। जब शरीर के किसी भाग में असन्तुलन होता है तो उसका प्रभाव सारे शरीर में प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से न्यूनाधिक पड़ता है। लम्बे समय तक प्राण ऊर्जा का । असन्तुलन बने रहने से शारीरिक स्तर पर माँसपेशियाँ, रक्त परिभ्रमण, श्वसन, . पाचन, हृदय की धड़कन, नाड़ी की गति, विजातीय तत्त्वों के विसर्जन आदि की . . प्रक्रिया प्रभावित होने लगती है। परिणामस्वरूप मानसिक स्तर पर भूख, प्यास, निद्रा, थकान, अरूचि, बेचैनी, तनाव, पीड़ा, दर्द, चिड़चिड़ापन, मनोबल में कमी जैसी ... स्थितियाँ प्रकट होने लगती है। आत्मिक स्तर पर स्मरण शक्ति का विस्मृत होना, सम्यक् प्रवृत्तियों के प्रति अरूचि अथवा उपेक्षा भाव, इन्द्रियों और मन पर संयम न रख पाना, स्वयं के लिए आवश्यक प्राथमिकताओं का ज्ञान या विवेक न रहना तथा उसके अनुरूप आचरण न कर पाने जैसी स्थिति बनने लगती है। स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि साधना में मन नहीं लगता। दूसरी तरफ ऊर्जा के असंतुलन के .. कारण रक्त, मल, मूत्र आदि अवयवों के रासायनिक तत्वों में परिवर्तन होने लगता है। शरीर का बाह्य सन्तुलन भी प्रभावित होने से चलने-फिरने, उठने-बैठने में तकलीफ तथा अन्य लक्षण प्रकट होने लगते हैं। तात्पर्य यह है कि शरीर के विभिन्न अंगों में प्रवाहित प्राण ऊर्जा का आवश्यकतानुसार सन्तुलन अच्छे स्वास्थ्य की मुख्य आवश्यकता है। प्राण ऊर्जा के सन्तुलन से न केवल शरीर अपितु मन और भावात्मक . . स्तर पर भी उपचार होता है। उपचार करते समय अच्छा चिकित्सक मात्र रोगी को जाग्रत करने का प्रयास करता है। सभी रोग और रोगी एक जैसे नहीं होते। सभी ठीक भी नहीं होते। जिसके अन्दर की चेतना जाग्रत होगी, उस पर प्रभाव पड़ेगा। उपचार में रोगी को साथ जोड़ना होगा। वह बेहोश है। असजग, उदासीन, परावलम्बी है। अज्ञानी है, ना समझ है। रोग स्वयं के अज्ञान से शरीर में पैदा करता है और उपचार बाह्य साधनों में ढूँढता है। समभाव में आना, राग-द्वेष से मुक्त हो जाना, स्व में स्थित होना, नर से नारायण और आत्मा को परमात्मा बनाना। यही स्थायी . प्रभावशाली स्वस्थ रहने का राजमार्ग है।
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