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अध्याय - 10
स्वास्थ के ऊपर मानसिक विकारों का दुष्प्रभाव
. मानव के अंग, उपांग की आकृति में उसके स्वभाव की ही अभिव्यक्ति होती है तथा स्वभाव की विकृति ही शारीरिक विकारों अथवा रोग के रूप में प्रकट होती है,। मानसिक विकार दो प्रकार से शारीरिक रोगों में सहायक बनते हैं। प्रथम तो उनका सीधा प्रभाव होता है। दूसरा उन अशुभ भावों से कुपस्थ, अनियमितता, दुराचार, गलत असात्विक खान पान आदि असंयम मय स्वछन्द प्रवृतियां का जीवन में बाहुलय होने लगता है।
आध्यात्म योगियों ने स्पष्ट घोषणा की --"प्रज्ञापराधो मूलं रोगाणाम्” अर्थात् रोगों का मूल कारण प्रज्ञापराध है, यानी कुमति होता है। मति (बुद्धि) का सम्बन्ध मन से होता है। जैसा मन होता है, वैसी ही बुद्धि होती है। अतः मस्तिष्क की शुद्धि के लिए मन की शुद्धि आवश्यक है। मन के विकार बुद्धि के विकार एवं तन के विकार के रूप में अभिव्यक्त होते हैं।
ईर्ष्या, क्रोध, भय, चिन्ता, तनाव, द्वेष आदि से पीड़ित मनुष्यों द्वारा खाया हुआ भोजन का पांचन ठीक से नहीं होता। ऐसा कोई भी मानसिक विकार, जिसे हम दूसरों से छिपाना चाहते हैं अर्थात् माया, कपट, अनैतिकता आदि विकार पेट के रोग उत्पन्न करते हैं। कलुषित विचारों को छिपाकर रखने से, जिसके प्रकट होने से व्यक्ति के आत्म सम्मान को आघात पहुँचने की सम्भावना रहती है, शरीर के अंगों को रोगग्रस्त और कमजोर बनाने में प्रभावी भूमिका निभाते हैं। ज्यादा क्रोध और चिड़चिड़ापन लीवर और गाल ब्लेडर को, भय गुर्दे एवं मूत्राशय को, तनाव, चिन्ता, तिल्ली, आमाशय, पेन्क्रियाज आदि को, अधीरता आवेग हृदय और छोटी आंत को तथा दुःख फेफड़े और बड़ी आँत की कार्य क्षमता को घटाते हैं। लोभीकृपण व्यक्तियों की वृति संकुचित होती है। उन्हें संचय ही संचय करना पसन्द होता है। किसी को कुछ देने की इच्छा नहीं होती। उनकी इस कृपणः आँतें मल-विसर्जन करने में, त्वचा पसीना बाहर निकालने में, फेफड़े पूरा श्वास छोड़ने में कृपणता करते हैं। अतः
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