Book Title: Swadeshi Chikitsa Aapka Swasthya Aapke Hath
Author(s): Chanchalmal Choradiya
Publisher: Swaraj Prakashan Samuh

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Page 62
________________ सुख-दुःख से प्रभावित हो जीव अनुकूल के प्रति राग भाव और प्रतिकूल के प्रति द्वेष भाव रखने लगता है। आत्मा पर लंगी शुभाशुभ भावों के रूप में राग-द्वेष रूपी चिकनाहट तथा मन, वचन और काया आदि की चंचलता के कारण इस लोक में व्याप्त आत्मा के चारों तरफ कर्म वर्गणाओं के सूक्ष्मतम पुद्गल आकर्षित हो चुम्बक की भाँति चिपक कर एकाकार हो जाते हैं। जिस प्रकार अति कठोर लोहपिण्ड में अग्नि प्रवेश कर जाती है, उसी प्रकार अति सूक्ष्म होने से कर्म पुद्गल आत्मा के साथ जन्म-जन्म तक चिपके रहते हैं। उनमें से कुछ प्रतिक्षण निर्जरित हो आत्मा से अलग होते हैं तो नए नए कर्म पुनः आत्मा के चिपकते रहते हैं । इस प्रकार कर्मबन्ध और निर्जरा की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। यदि संयोग-वियोग में जीव अनासक्त रहे, प्रतिक्रिया न करे तथा समभाव - पूर्वक ज्ञाता द्रष्टा भाव रखे तो कर्मों के बन्धन यह चक्र रूक जाता है। जब राग-द्वेष पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है, तो आत्मा उसको आवृत्त करने वाले कर्मों से मुक्त हो जाती है। जैन दर्शन में आत्मा की उस अवस्था को वीतरागी अवस्था अथवा केवलज्ञान की प्राप्ति कहते हैं, जहाँ सारा अज्ञान दूर हो जाता है। केवल ज्ञान ही शेष रहता है। आत्मा पूर्ण रूप से निर्मल, शुद्ध, स्वच्छ एवं पवित्र बन जाती है । सम्पूर्ण आत्मानुभूति की अवस्था में वर्तमान, भूत एवं भविष्य की सूक्ष्म, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष वस्तुएं . और घटनाएं दर्पण की भांति प्रतिबिम्बित होने लगती हैं। वे ही वास्तव में सच्चे एवं सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक होते हैं । वे ही सत्य के प्रेरणास्रोत और आत्म साक्षात्कार का मार्ग बतलाने वाले होते हैं। उनका उपदेश एवं मार्गदर्शन न केवल भौतिक उपलब्धियों तक ही सीमित होता है, अपितु वे जीवन के चरम लक्ष्य का मार्गदर्शन करते हैं। उनमें भक्त को भगवान नर से नारायण तथा आत्मा को परमात्मा बनाने की चमत्कारिक शक्ति होती है। शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और आत्मिक स्वास्थ्य, समाधि और शांति के लिए ऐसे महापुरूषों के निर्देशानुसार विवेकपूर्ण जीवनचर्या आवश्यक है। इसके विपरीत आचरण कर स्वस्थ रहने की कल्पना शारीरिक रोगों से भले ही आंशिक अल्पकालीन राहत दिला दें, अन्ततोगत्वा हानिकारक ही होती है जो भविष्य के लिए ज्यादा कष्टकारण होने से घाटे का सौदा साबित होती है। आत्मा के साथ कर्म पुद्गलों का दूध में पानी की भाँति मिल जाना, एकाकार हो जाना बन्ध कहलाता हे और आत्मा से कर्मों के अलग हो जाने की प्रक्रिया को निर्जरा कहते हैं। लोक में चारों तरफ कर्म वर्गणा के पुद्गल हैं, पर वे आत्मा की शुभ या अशुभ प्रवृति के बिना उसके साथ घुलमिल नहीं सकते । जैसे तेल से भरे दीपक में रखी बाती भी तेल को नहीं खींच सकती, पर ज्योंही उसे दियासलाई से जलाया जाता है, त्योंहीवह बत्ती सिहर - सिरहकर धीरे-धीरे तेल खींचने लगती है। इसी प्रकार आत्मा भी अपनी प्रवृत्ति द्वारा कर्म योग्य पुद्गलों को खींच, एंकाकार कर देती है । · 61 फैले हुए

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