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- बढ़ावा देना, कर्जा चुकाने के लिए ऊँचे ब्याज पर कर्ज लेने के तुल्य होगा। सेवाकर्म .. निर्जरा का माध्यम है और हिंसाकर्म बन्धन का कारण परन्तु क्या कर्म बन्धन का ..
कारण कर्म निर्जरा हो सकता है? अनेकान्त दृष्टि से पूर्वाग्रह छोड़ इस बात पर. ..चिन्तन अपेक्षित है? अतः उपचार करते और करवाते समय प्रभावशाली अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियों को ही प्राथमिकता देनी चाहिए। - जीव-अजीव का भेद समझ में आने पर प्रज्ञावन, विवेकशील व्यक्ति अनावश्यक हिंसा से यथासंभव बचने का प्रयास करेगा परन्तु जब तक जीवन है, सूक्ष्म हिंसा अनिवार्य है। अतः आजकल ऐसी मान्यता बलवती होती जा रही है कि बिना हिंसा जीवन चल ही नहीं सकता। इस शंका का समाधान करते हुए प्रभु महावीर ने कहा
जयं चरे जयं चिट्ठे जय मासे जयं सए। .
जयं भुजंतो भासंतो पावकम्मं न बंधई।। . अर्थात् यतानापूर्वक उठने, बैठने, चलने एवं सोने अथवा जीवन के लिए अति आवश्यक प्रवृत्तियाँ करने से पाप कर्मों का बन्ध नहीं होता अर्थात् हिंसा का अधिक दोष नहीं लगता। अतः हेमारी सारी प्रवृतियाँ विवेकपूर्ण होनी चाहिए ताकि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, जाने-अनजाने किसी जीव को कष्ट पहुँचाने की मन में भी भावना न हो। हिंसक प्रवृत्तियों से यथा सम्भव बचने का प्रयास किया जाए। :
हिंसा के मुख्यतया दो भेद होते हैं। प्रथम द्रव्य-हिंसा तथा दूसरी भाव-हिंसा। प्रथम का सम्बन्ध जाने-अनजाने प्रत्यक्ष हिंसा से होता है, जबकि दूसरी हिंसा में हम सीधे सहयोगी नहीं होते, मात्र हिंसा के भाव होते हैं। ऐसी हिंसा से हम सहज बच सकते हैं। जैन आगमों में ऐसी अकारण हिंसा का अनुमोदना का अनर्थदण्ड कहा हैं। मन में हिंसा का विचार आते समय, मन में भावों अथवा लेश्या की क्या स्थिति है, कर्म बन्धन हेतु बहुत महत्त्वपूर्ण है.। जैन आगमों में इंस सन्दर्भ में तन्दुल मच्छ का दृटान्त आता है। जो समुद्र में भीमकाय मगरमच्छ की भौंहों पर बैठा चावल के दाने जितना छोटा मच्छ होता है। जब वह देखता है कि मगरमच्छ की श्वास के साथ सैकड़ों मछलियाँ उसके पेट में जा रही है और श्वास छोड़ने के साथ वापस आ रही है। तंदुलमच्छ विचार करता है कि यह कैसी आलसी मगरमच्छ है, जो मुंह में आए शिकार को यों ही गंवा रहा है। इसके स्थान पर यदि मैं होता तो एक भी मछली को जीवित बाहर नहीं आने देता।
. उसकी ऐसी भावना मात्र उसे उधोगतिका पथिकं बना देती है। हालांकि प्रत्यक्ष रूप से तन्दुलमच्छ हिंसा में तनिक भी भागीदार नहीं होता। इसी प्रकार आजकल हम बिना प्रयोजन, अकारण ऐसी प्रवत्तियों की प्रेरणा देते हैं अथवा प्रशंसा करते हैं जिनका सम्बन्ध प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में हिंसा से होता है। ऐसी अनावश्यक प्रवृत्तियों को हमें त्यागना होगा, जो आत्मा को कर्म से आवृत्त कर विकारग्रस्त बनाती हैं।
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