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. आज का चिन्तनशील मानव स्वास्थ्य के प्रति जितना चिन्तनशील होना चाहिए, प्रायः कम लगता है। उसको अपनी क्षमता पर विश्वास नहीं। पूरी सोच भीड़, भ्रमित विज्ञापनों एवं मायावी आंकड़ों से प्रभावित होने के कारण वैकल्पिक चिकित्सा के प्रति जितनी श्रद्धा, विश्वास, समर्पण होना चाहिए, नहीं होता।
वैकल्पिक चिकित्सा सस्ती होने के कारण अर्थ उपार्जन हेतु उपयुक्त नहीं और न महंगे विज्ञापनों द्वारा उसका प्रचार-प्रसार सम्भव होता है। आज विज्ञान के साथ-साथ विज्ञापन एवं शीघ्रता का भी युग है। विज्ञापन के माध्यम से किसी भी पदार्थ की उपयोगिता जन-जन तक पहुँचायी जा सकती है, परन्तु दुर्भाग्यवश मिथ्या विज्ञापन पर कानूनी प्रतिबन्ध न होने से अधिकांश नियमित प्रसारित होने वाले विज्ञापनों में छल, कपट, माया, मिथ्या प्रचार ज्यादा होता है। ज्यादा लाभ कमाने की प्रवृत्ति ही उसका एक मात्र उद्देश्य होती है। अधिक विज्ञापन उन्हीं को प्रभावित करते हैं, जहाँ चिन्तन एवं स्वविवेक का अभाव होता है। जो स्वास्थ्य विजांन के मूल सिद्धान्तों की जानकारी के अभाव में मात्र भीड़ का अनुसरण करते हैं। अपना . • भला-बुरा, हानि-लाभ के दीर्घकालीन प्रभावों का विचार नहीं करते। जिनमें स्वयं निर्णय लेने एवं तर्क करने की क्षमता नहीं होती। इसी कारण स्वास्थ्य के नाम पर ... प्रसारित होने वाले अधिकांश विज्ञापनों में प्रायः थोथे. मन-लुभावने एवं भ्रमित करने वाले नारे और भाषा का प्रयोग किया जाता है ताकि जनसाधारण उस पदार्थ की तरफ सहज आकर्षित हो सके। कहने का आशय यही है कि आधुनिक चिकित्सा का आधार विज्ञान से ज्यादा विज्ञापन है। कारण चाहे जो हो सत्य सनातन होता है। किसी गलन्न रूझान अथवा दुष्प्रचार अथवा भ्रामक विज्ञापनों पर आधारित मान्यताओं का निवारण तर्कसंगत व सही विकल्प समझा कर ही किया जा सकता है।
विज्ञापनों से · प्रभावित उपचार
आज चिकित्सा के बारे में असमंजस की स्थिति है। अधिकांश प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों से सम्बन्धित चिकित्सा प्रायः एकपक्षीय चिन्तन के पूर्वाग्रहों से ग्रासित होते है। उनके चिन्तन में समग्रता एवं व्यापक दृष्टिकोण एवं समन्वय का अभाव होता हे। जनसाधारण से ऐसी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि वे शरीर, स्वास्थ्य और चिकितसा पद्धतियों के बारे में विस्तृत जानकारी रखें। अधिकांश रोगियों को न तो रोग के बारे में सही जानकारी होती हैं और न.वे अप्रत्यक्ष रोगों को रोग ही मानते हैं। जब तक रोग के स्पष्ट लक्षण प्रकट न हो जाएँ, रोग सहनशक्ति के बाहर नहीं आ जाता, तब तक शरीर में उपस्थित विकारों, असन्तुलनों, विजातीय तत्त्वों, जो रोग के जनक होते हैं, ध्यान ही नहीं जाता। रोग के लक्षण प्रकट होने के बाद भी रोगी का एक मात्र उद्धेश्य येन-केन-प्रकारेण उत्पन्न लक्षणों को हटा अथवा दबाकर तुरन्त राहत पाने का होता है। जैसे ही उसे आराम मिलता
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