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रखने के लिए यह जानना आवश्यक है कि श्वास कब, कहाँ, कितना और कैसे लें अथवा छोड़ें? पानी कब, कितना और कैसे पिएँ? खाना कब, कितना, क्या, कहाँ और . कैसे खाएं? इन नियमों की उपेक्षा कर अपने आपको स्वस्थ रखने की कल्पना, आग लगा कर शीत प्राप्त करने के समान होगी। मन के लंगड़े व्यक्ति को स्वर्ग के हजारों देवता भी अपने पैरों से नहीं चला सकते। ठीक उसी प्रकार अप्राकृतिक जीवन शैली से दीर्घकाल तक स्वस्थ रहना असम्भव होता है। स्वस्थता के लिए आवश्यक है, नियमित स्वाध्याय, ध्यान, शुभ भावनओं का सम्यक् चिन्तन, अनासक्ति एवं निस्पृही . . जीवनचर्या, सम्यक ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् आचरण में प्रवृत्ति का अभ्यास, संयमित, नियमित, परिमित जीवन शैली, मौसम के अनुकूल, सात्त्विक पौष्टिक खान-पान, शुद्ध प्राणवायु का अधिकाधिक सेवन, स्वच्छ हवा एवं धूप वाला आवास एवं क्रिया स्थल, नियमित आसन, प्राणायाम, व्यायाम, निद्रा, उपवास, स्वास्थ्य के अनुकूल दिनचर्या आवश्यक है। अपनी अपनी आवश्यकताओं और क्षमताओं की प्राथमिकता के आधार पर यदि उपर्युक्त बातों का समायोजन हमारे दैनिक जीवन में करते हैं तो रोग आने की सम्भावनाएँ बहुत कम हो जाती हैं। साथ ही मानसिक एवं आत्मिक शुद्धि का निरन्तर विकास होने से जीवन में शान्ति, सन्तोष; सहनशीलता, निर्भयता, धैर्य, आनन्द एवं अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंगों पर समभाव के संस्कार अभिव्यक्त होने लगते हैं। .
मन का असंयम रोग का जनक ___ मन का कार्य चिन्तन-मनन, संकल्प-विकल्प, इच्छाएँ-कामनाएँ करना, भूत की स्मृति एवं भविष्य की कल्पनाएँ करना आदि है। इस पर जब ज्ञान और विवेक का अंकुश रहता है तो मन शुभ में प्रवृत्ति करता है। व्यक्ति को नर से नारायण बना देता है, परन्तु जब वही मन स्वछन्द बन जाता है, तब व्यक्ति को अपने लक्ष्य से . . विचलित कर देता है। जब चाहा, जैसा चाहा, चिन्तन, मनन, इच्छा, एषणा, आवेग . करने लग जाता है, जिसका परिणाम होता है गलत प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन, असंयम, कषाय (आत्मा को कलुषित करने वाली प्रवृत्ति) प्रमाद (निरर्थक समय की बरबादी).. . अशुभ, अनावश्यक, अनुपयोगी कार्यों मे मन और काया को लगाए रखना। ये सब
प्रवृतियाँ आत्मा को विकारी बना देता हैं। आत्मा से मन, वाणी और शरीर का सृजन . होता है। अतः तीनों में विकार उत्पन्न होने से व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाता है।
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