Book Title: Swadeshi Chikitsa Aapka Swasthya Aapke Hath
Author(s): Chanchalmal Choradiya
Publisher: Swaraj Prakashan Samuh

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Page 45
________________ सन्तोषी, संयमी, सहज, संतुलित, सरल होता है। विचारों में अनेकान्तता, भावों में मैत्री, करूणा, प्रमोद तथा मध्यस्थता अर्थात् सहजता, स्वदोष--दृष्टि, सजगता, सहनशीलता, सहिष्णुता, दया, सरलता, सत्य, विवेक, संयम, नैतिकता आदि गुणों का प्रादुर्भाव होता है। जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव, निस्पृहता, अनासक्ति विकसित होती है। व्यक्ति निर्भय, तनाव मुक्त बन जाता है। वाणी में सत्य के प्रति निष्ठा सभी जीवों के प्रति दया, करूणा, मैत्री, परोपकार जैसी भावना और मधुरता प्रतिध्वनित होने लगती है। व्यक्ति का मनोबल और आत्मबल विकसित होने लगता है। व्यक्ति स्वावलम्बी, स्वाध.. न बनने लगता है। आत्मा की पवित्रता बिना पूर्ण उपचार असम्भव . ___चैतन्य चिकित्सा अर्थात् आध्यात्मिक चिकित्सा पूर्णतया स्वावलम्बी होती है। जिसके अन्तर्गत पातंजली अष्टांग योग के अनुसार यम, नियम, आसन, प्राणायम से ध्यान समाधि की साधना आती है। परन्तु आज यम, नियम की उपेक्षा कर योग को आसन और प्राणायाम तक सीमित करने से यौगिक चिकित्सा को शारीरिक रोगों तक ही सीमित कर दिया गया है। इसी प्रकार जैन द्वादशांग योग के अनुसार योग से अयोग का साक्षात्कार के रूप में आत्मिक विकास का जो क्रम प्रथम गणस्थान से चौदहवें गुणस्थान अवस्था को प्राप्त करने का साधना पथ है जो “कर्म निर्जरा चिकित्सा पद्धति के नाम से आगमों में चर्चित है। आत्मा के विकार--मुक्त होने से शरीर, मन और मस्तिष्क तो स्वतः ही स्वस्थ हो जाता है। आध्यात्मिक चिकित्सा में मन, मस्तिष्क, शरीर और वाणी का। उपयोग मात्र आत्म शुद्धि के लिए ही किया जाता है और जब आत्मा के ये . प्रतिनिधि उस कार्य में सहयोग देना बन्द कर देते हैं, तो उनकी भी उपेक्षा कर दी जाती है। इसके विपरीत अन्य चिकित्साओं का लक्ष्य मात्र शरीर, मन अथवा.मंस्तिष्क. की स्वस्थता तक ही सीमित होता है। आत्मा की तरफ लक्ष्य न होने से प्रायः आत्मा . के सद्गुणों की चिकित्सा करते समय उपेक्षा हो जावे तो भी कोई आश्चर्य नहीं? आत्मा को विकारी अपवित्र बनाने वाली चिकित्सा पद्धतियों का उद्धेश्य नौकर को मालिक से ज्यादा महत्त्व देने के समान अबुद्धिमता पूर्ण ही समझा जाना चाहिए। 44

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